Shaneha Tarannum( Research Scholar MANUU Hyderabad)
भारत सहित पूरे विश्व मे 8 मार्च महिला दिवस के रुप मे मनाया जाता हैl इस दिवस को मनाने का उद्देश्य महिलाअों के संघर्ष, उपलब्धियों को उजागर करना, एकजुटता और समानता की बात करना हैl यह महिलाअों को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक उपलब्धीयों का जश्न मनाने का अवसर प्रदान करता हैl यह दिवस लैंगिक समानता के प्रति हमे जागरुक होने की प्रेणना देता हैl यह लैंगिक समानता के अधिग्रहण के बारे मे बात करने का और उसे प्रतिबिंबित करने का अवसर देता है कि हम अपनी आधी आबादी के जीवन स्तर, शिक्षा, स्वास्थ को और कैसे बेहतर कर सकते हैंl लेकिन विडम्बना ये है कि हम ने केवल एक दिन चुन लिया महिला सुरक्षा, लैंगिक समानता और महिलाअों के अधिकारों पे बात करने के लिएl लेकिन प्रश्न ये है कि आज भी हम महिला सुरक्षा की बात क्यूँ कर रहे हैं? हम हर साल ये दिन तो मनाते हैं लेकिन पूरी दुनिया मे महिलाअों पे हो रही हिंसा मे कोई कमी नही हैl अगर महिला दिवस के इतिहास की बात करे तो 1908 सबसे पहले महिला दिवस के बीज बोए गए थे जिसमे लगभग 15,000 महिलाओं ने न्यूयार्क शहर के माध्य से कम काम के घंटे, बेहतर वेतन और वोट के अधिकार के लिए प्रदर्शन किया। अमेरिका में सोशलिस्ट पाटी ने 1909 में पहली बार राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित किया। अगस्त 1910 में अंतर्राष्ट्रीय महिलावादी सम्मेलन में इस दिवस को अंतर्राष्ट्रीय बनाने का विचार प्रस्तुत किया गया था, जिसे कोपेनहेगन, डेनमार्क में समाजवादी द्वितय अंतर्राष्ट्रीय की आम बैठक से पहले आयोजित किया गया था। क्लारा जेटकिन, के टडनकर और अन्य ने एक वार्षिक महिला दिवस की शुरुआत का प्रस्ताव दिया। 1911 में, यह मुख्य रूप आस्ट्रीया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में मनाया गया था। 1975 में इसे को आधिकारीक बना दिया गया था जब संयुक्त राष्ट्र ने दिवस मनाना शुरू किया था। यूनाइटेड नेशन ने 1996 में “ सेलिब्रेटींग द पास्ट, प्लाननंग फॉर द फ्यूचर’था। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने 1977 में महिला दिवस को आधिकारीक तौर पर मान्यता दी थी जो कि महिलाओं के मुद्दों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए था। इसके बाद 2011 में इसकी शताब्दी मनाई गई। इस दिन को नागरीक जागरूकता दिवस, लैंगिक-जागरूता दिवस और कई विचारकों और कार्यकर्ताओं द्वारा भेदभाव-विरोधी दिवस के रूप में भी जाना जाता है। इस वर्ष के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का थीम “नेतृत्व में महिल: एक COVID-19 दुनिया में एक समान भविष्य की प्राप्ती “(“Women in Leadership: Achieving an equal Future in a COVID- 19 world”) है, जो समान रूप से भविष्य बनाने और अभूतपूर्वक COVID-19 महामारी से उबरने के लिए विश्व स्तर पर महिलाओं और लड़कीयों के विशाल प्रयासों को चिन्हित कर रही है। इस दिन के वास्तविक सार को प्राप्त करने के लिए, एक सवाल जो सामने आता है वह है: क्या महिलाएं समान हैं? वास्तविक हालात से पता चलता है कि यह समाज में अब तक लैंगिक समानता मायावी बनी हुई है। कई महिलाओं को सम्मानजनक और निजी क्षेत्रों में अनकही और बिना कहे हिंसा का अनुभव जारी है। संयुक्त राष्ट्र ने खुलासा किया कि आज भी महिलाओं और लड़कीयों में से एक तिहाई अपने जीवनकाल में शारीरीक या यौन हिंसा का शिकार होती हैं साथ ही यह भी खुलासा किया की हर तीन में से एक महिला को पीटा जाता है, बलात्कार किया जाता है, और निर्मम परिस्थितयों में हत्या कर दी जाती है। इसमेें यह भी बताया गया है कि महिलाओं और लड़कीयों के अत्याचार विश्व स्तर पर सबसे आम और विनाशकारी मानवाधिकारों के उल्लंघन मे से एक हैं , दुर्भाग्य से , विभिन्न निवारण पहल के बावजूद, महिलाओं द्वारा अनुभव की जाने वाली हिंसा दुनिया भर में एक चर्चा का विषय बनी हुई है। हालांकि भेदभावपूर्ण कानूनों को हटाने, लैंगिक अंतराल को दूर करने, महिलाओं की आर्थिक संसाधनो को व्यापक बनाने और लिंग आधारीत हिंसा को रोकने के प्रयासो को आगे बढाने पर कुछ ध्यान देने योग्य प्रयत्न की गई है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। आज,दुनिया के कई कोनों में महिलाएं अधिकारों, स्वतंत्रता और विशेषाधिकारों के बिना असुरक्षित हैं। कुछ देशों में महिलाओं के पास मौलिक यौन और प्रजनन अधिकार भी नहीं हैं। इसके अलावा, कई महिलाएं अभी भी उचित विकल्प बनाने के अधिकार के लिए संघर्ष कर रही हैंl प्रजनन उम्र की 90% मिलियन महिलाएं उन देशों में रहती हैं, जो गर्भपात पर प्रनतबंध लगाते हैं- यानी, एक महिला को अपने शरीर के बारे में निर्णय लेने की अनुमतती नहीं है। उन्हें स्वस्थ देखभाल और गर्भनिरोधक के समान पहुंच भी वंचित किया जाता है, आंकड़े यह भी बताते हैं कि हर साल कम से कम 23,000 महिलाएं असुरक्षित गर्भपात के कारण मर जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास मंच लिंग सुजकांक ( The United Nations Development Forum gender index’s) के आंकड़ो से पता चलता है कि 75 देशों में लगभग 90% आबादी महिलाओं के खिलाफ पक्षपाती है। दुनिया भर में कई महिलाओं को मार दिया जाता है या अपनी जान लेने के लिए मजबूर किया जाता है। भारत के संविधान में लैंगिक समानता के सिद्धांत को सुनिश्चित किया गया है।लेकिन देखा जाये तो हाल ही में भारत में 23 साल की आयशा बानो ने अपने पति के अपमान और उत्पीड़न के कारण एक नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। आंकड़ों से यह भी पता र्लता है कि दुनिया भर में पुरुषो द्वारा हर घंटे छह महिलाओं को मार दिया जाता है। लगभग 137 महिलाओं को हर दिन एक पति या परीवार के सदस्य द्वारा मार दिया जाता है। लिंग वेतन अंतर अभी भी व्यापक है, यहाँ तक की हमने बच्चों के जबरन विवाह, शिक्षा, स्वास्थ स्वच्छता, मासिक धर्म, जननांग विकृती, शरीर का रंग बदलना इत्यादी पर भी ध्यान नहीं दिया है। यह स्पष्ट है कि जब तक महिलाओं की पहचान का सम्मान, इनकी योगदान का सम्मान और दुसरी समस्यायों को महत्व नहीं दिया जाता तब तक पर लैंगिग समानता हासिल करना मुश्किल होगा। लैंगिक समानता के सवाल का जवाब देने के लिए एक नारीवादी दृष्टीकोण की आवश्यकता है और इस दुनिया के कानूनी आर्कीटेक्चर में शामिल किया जाना चाहिए। हमें समान, समावेशी और सतत भविष्य का एहसास करने के लिए महिलाओं के नेतृत्व की शक्ति की पूरी तरह सराहना करने की आवश्यकता है। हमें इस समाज को स्थायी, शांतीपूर्ण और सभी के लिए समान अधिकारों और अवसरों के साथ कलंक, रूढ़ीयों और हिंसा मुक्त वातावरण बनाने की आवश्यकता है। अगर समाज मे इन सब बातो पे चर्चा नही जायेगा तब तक ना ही लोगों की समझ में कोई बदलाव आ सकता और ना ही नारी को इस समाज मे न्याय मिल सकता है और हम ऐसे ही हर साल महिला दिवस मनाते रह जायेंगेl अगर सामाजिक कार्यों के दृष्टीकोण से देखा जाये तो लिंग जागरूकता दुनिया भर में सामाजिक कार्यों के लिए एक अहम केंद्र बिंदुहै, जहा पर एक समाजिक कार्यकर्ता समाज मे समानता की बात करता है और समाज मे हो रहे बुराईयों को दूर करने मे अहम भुमिका अदा करता है। लेकिन अगर वास्तविक रुप मे देखा जाये तो भारत मे 46 साल केवल जश्न मनाएं गए हैं, महिलाओं की स्थिती मे कोई विशेष सुधार के प्रयास के बगैर, लोग इस दिन महिला अधिकारों और उनके उत्थान की बड़ी-बड़ी बातें करतें हैं, सोशल मीडिया पे अच्छे-अच्छे विचार शेयर किये जाते हैं लेकिन लेकिन इन बातों से महिलाअों के जीवन स्तर मे कोई सुधार नही होताl सरकार और सामाजिक संगठनो की ज़िम्मेदारी है की वो महिलाओं के जीवन स्तर मे सुधार के लिए कार्य करेंl तभी हम विकसीत विश्व के सपने को साकार कर सकते हैं, अन्यथा हमारी आधी आबादी दूर्दशा मे होगी और हम महिला दिवस का तथाकथित जश्न मना रहे होंगेlवजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग इसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ