भारत की आज़ादी में मदरसों व ख़ानक़ाहों का योगदान इमरान अहमद: छात्र पत्रकारिता सह जनसंचार विभाग मानू हैदराबाद

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15 अगस्त को हमारा देश अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस यानी यौमे आज़ादी मनाने जा रहा है. 15 अगस्त ही वह दिन है जब हमें अग्रेजों से आजादी मिली थी, इसी दिन 1947 को भारत से ब्रिटिश हुकूमत का खात्मा हुआ, और आज़ाद हिंदुस्तान की स्थापना हुई थी, लगभग 100 साल ईस्ट इंडिया कंपनी और लगभग 100 साल ब्रिटिश क्राउन का मिलाकर लगभग 200 साल अंग्रेजों ने हम भारतीयों पर हुकूमत किया, लेकिन ये ही वो दिन था जब हमारे पूर्वजों ने आजादी की खुली हवा में सांस ली. भारतीय राष्ट्र राज्य के निर्माण में हिंदुओं के साथ मुसलमानों का भी योगदान रहा है. जंग-ए-आज़ादी में केवल हिंदुओं ने ही नहीं बल्कि मुसलमानों ने भी अपनी कुर्बानियां दीं. जंग-ए-आज़ादी में मुल्क के मदरसे और खानकाहों का भी बहुत अहम किरदार रहा है. हिंदुस्तान को काफी जद्दोजेहद के बाद आज़ादी मिली और इस जद्दो-जेहद-ए-आज़ादी में मदरसे और खानकाहों का योगदान बहुत महत्पूर्ण था. इस आज़ादी के लिए हमारे बुज़ुर्गों और पुरखों के साथ साथ मदरसे और खानकाहों ने जबर्दस्त कुर्बानियां दी हैं. बहुत सी तहरीकें चलाई बहुत से उलमाओं ने फांसी के फंदे को कमाल और बहादुरी के साथ बख़ूबी गले लगाया जेलों में क़ैदो रहे, और हिम्मत और हौसले के साथ आज़ादी के मैदान में डटे रहे और आख़िरकार अंग्रेज़ो को मुल्क से बाहर जाने पर मजबूर कर दिया.जंग-ए-आज़ादी में मदरसों का किरदार उतर प्रदेश के जिला देवबंद में एक मदरसा है, ‘दारुल उलूम देवबंद’. देश और दुनियां भले ही दारुल उलूम को सिर्फ इल्म-ओ-अदब का गहवारा समझता हो, लेकिन दारुल उलूम के उलेमाअों ने मुल्क की आजादी की जंग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. इस्लामिक शिक्षा के लिए मशहूर दारुल उलूम की स्थापना मुल्क की आजादी के ऐसे वीरों को तैयार करने को हुई जो अंग्रेजो के नाक चने चबवा सकें. आजादी की जंग में इस मदरसे के उलेमाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. वर्ष 1857 में देश की आजादी के लिए क्रांति का पहला बिगुल फूंका गया तो देवबंद के हर मज़हब के लोगों ने हिस्सेदारी की. उलेमाअों ने आजादी के लिए न सिर्फ आंदोलन चलाए बल्कि अपनी जान भी न्योछावर कर बेमिसाल कुर्बानियां दी. मौलाना कासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही के नेतृत्व में उलेमा के जत्थे ने शामली के मैदान में जंग लड़ी. इस जंग का उद्देश्य अंबाला से मेरठ और दिल्ली जाने वाली अंग्रेजों की रसद के रास्ते को खत्म करना था. इस लड़ाई में उलेमा ने अंग्रेजों को करारी शिकस्त देते हुए फतेह हासिल की. 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ जो पहली जंग हुई, उसके बाद ब्रिटिश शासकों ने आम लोगों पर अत्याचार की इंतेहा कर दी थी. जगह-जगह लोगों को पेड़ों से लटकाकर फांसी दी जाने लगी. उन्हें तोपों से बांधकर उड़ाया जाने लगा. इस लड़ाई को इतिहास में शामली मार्का के नाम से जाना जाता है. अंग्रेजी हुकूमत ने इसके साथ ही मदरसों पर भी निगरानी रखनी शुरू कर दी. कई मदरसों को बंद करा दिया गया. उसी वक्त देवबंद के उलेमाओं ने तय किया कि अब सीधी लड़ाई मुमकिन नहीं है. ऐसे में दारुल उलूम बनाकर कौम को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा करने का बड़ा अभियान शुरू किया गया.21 मई 1866 को दारुल उलूम की स्थापना की गई. इस संस्था की स्थापना का मकसद धार्मिक शिक्षा के साथ ही अंग्रेजों की नजर से बचाकर ऐसे क्रांतिकारी पैदा करना था, जो बिना भेदभाव और नस्ल के अंग्रेजों से लोहा लें और भारत को आजाद कराने में अहम योगदान दें. मौलाना कासिम के बाद हाजी आबिद हुसैन, शेखुल हिंद मौलाना महमूद हसन देवबंदी, मौलाना रफीउद्दीन उस्मानी, मौलाना जुल्फिकार और मौलाना वहीदउद्दीन का देश की आजादी की लड़ाई में खासा योगदान रहा. उधर, जहां 1857 की क्रांति में देवबंद के उलेमा समेत 40 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया. वहीं वर्ष 1863 में सोमदत्त त्यागी और उनके शिष्य जावेद अख्तर को अंग्रेजी हथियार लूटने के आरोप में फांसी की सजा दी गई. इतिहासकारों के मुताबिक 1863 में जब देवबंद के रास्ते अंग्रेजों द्वारा सहारनपुर हथियार ले जाए जा रहे थे. तब गुरु शिष्य ने अंग्रेजों से हथियार लूट लिए। लेकिन इस दौरान वे पकड़े गए। देवबंद निवासी जावेद की उम्र 18 वर्ष थी। जिसे देखते हुए अंग्रेजों ने माफी मांगने पर उसकी सजा माफ करने को कहा. लेकिन जावेद ने माफी नहीं मांगी। इसके बाद दोनों गुरू शिष्य को अंग्रेजों ने देवीकुंड के मैदान में फांसी दे दी. इस वक्त तक अंग्रेजों के खिलाफ लोग और मुखर हो रहे थे. तमाम उलेमाओं को अंग्रेज फांसी पर चढ़ा चुके थे.दारुल उलूम के पहले छात्र मौलाना महमूदउल हसन ने ऐसे में नया आंदोलन शुरू करने का फैसला किया गया और उसे नाम दिया गया रेशमी रुमाल आंदोलन. ब्रिटिश शासकों के खिलाफ ‘रेशमी रुमाल की तहरीक की शुरुआत की जिसमे उनके सहयोगी मौलाना अब्दुल्ला सिंधी रहे. इस दौरान अंग्रेजो ने सैकड़ों उलेमा को फांसी की सजा दी. लेकिन तब तक शेखुल हिंद के नाम से मशहूर हो चुके मौलाना महमूद उल हसन का आंदोलन परवान चढ़ चुका था.मौलाना महमूद हसन ने 1912-13 में इस आंदोलन के तहत अफगानिस्तान, तुर्की और जर्मनी को साथ लेकर अंग्रेजों से लड़ने की रणनीति बनाई. मौलाना अब्दुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजा गया. तुर्की के राष्ट्रपति को भी रेशमी रुमाल भेजा गया. इन देशों से मदद मांगी गई ताकि अंग्रेजों को यहां से भगाया जा सके. दारुल उलूम देबंद के अलावा चाहे शिया मुस्लिमों का सुलतानुल मदारिस हो या सुन्नी मुस्लिमों का फरंगी महल मदरसा. इस दोनों मदरसों ने भी जंग-ए-आज़ादी में महत्पूर्ण भूमिका निभाई थी. इंकलाब जिंदाबाद का नारा देकर नौजवानों में देशभक्ति की अलख जगाने वाले मौलाना हसरत मोहानी हों या जंग-ए-आजादी में शामिल होकर बाद में देश के राष्ट्रपति बने जाकिर हुसैन हों। लखनऊ के मदरसों का नाता न सिर्फ ऐसे दीगर देशभक्तों से रहा बल्कि जंग-ए-आजादी में मुसलसल अहम किरदार भी निभाया. वो दौर था आजादी का जब शिया मुस्लिमों का सुलतानुल मदारिस और सुन्नी मुस्लिमों का फरंगी महल मदरसा तालीम के दो बड़े इदारों में शुमार था. जहां जाकिर हुसैन सुलतानुल मदारिस छात्र रहे तो हसरत मोहानी भी फरंगी महल से ताल्लुक रखते थे।ल. जंग-ए-आजादी का जब बिगुल बजा तो मदरसे भी इसमें कूद गए। फरंगी महल का नाम सुनकर आए थे गांधी जी.जब अंग्रेज ‘डिवाइड एंड रूल’ की पॉलिसी पर लोगों को अलग कर रहे थे तो लखनऊ शहर के फरंगी महल ने हिंदू मुस्लिम एकता का नारा दिया। इसके बाद 1916 में महात्मा गांधी फरंगी महल का नाम सुनकर आए. फरंगी महल के मौलाना खालिद रशीद ने बताया कि महात्मा गांधी ने यहां के उलमा के साथ बैठकर दोनों कौमों को करीब लाने की योजना बनाई.अक्टूबर, 1920 में गोलागंज के रिफा-ए-आम क्लब में फरंगी महल का एक बड़ा जलसा भी हुआ जिसकी अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की. बाद में सरोजनी नायडू और जवाहर लाल नेहरू भी फरंगी महल आए. यहां के छात्रों ने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़चढ कर हिस्सा लिया. मौलाना जौहर समेत यहां के कई उलमा भी इस मुहिम में शामिल हुए.देश को आजाद करवाने की अपील की थीशिया मुस्लिमों के बड़े इदारे चौक स्थित सुलतानुल मदारिस का भी अपना इतिहास है. स्वतंत्रता सेनानी अशफाक उल्लाह खां सुलतानुल मदारिस आए और यहां के छात्रों से मुलाकात कर जंगे आजादी में शामिल होने की दावत दी. सुलतानुल मदारिस के शिक्षक अंसार हुसैन ने बताया कि उस दौरान यहां के तत्कालीन प्रिंसिपल मौलाना मो. बाकर ने मदरसों में पत्र भेजकर बच्चों से आजादी में हिस्सा लेने के लिए कहा. उसी दौरान यहां के उलमा ने गांधी जी को भी समर्थन का पत्र भेजा. मौलाना अबुल हसन, सैयद अली, मौलाना मो. हुसैन, कल्बे हुसैन समेत यहां के कई मौलाना जंग-ए-आजादी में शामिल रहे.जंग-ए-आज़ादी में खानकाहों का किरदार इसके अलावा जिन खानकाहों ने जंगे-आज़ादी में महत्पूर्ण भूमिका निभाई इसमें इमारत-ए-शरिया भी एक था. नज़रबंदी के दौरान 1917 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद नें रांची शहर में एक तालीमी एदारा क़ायम किया था, जिसे आज दुनिया मदरसा इस्लामिया रांची के नाम से जानती है, इस इदारे का मक़सद था मुसलमानो को मज़हबी और दुनियावी हालात से रुबरु करवाना ताके वो जंग ए आज़ादी में एक मज़बूत योद्धा के रुप में हिस्सा ले सकें. वो लगातार इस कोशिश में थे के और लोगों को इस इदारे से जोड़ा जाए और इस सोंच को आगे बढ़ाने के लिए उन्होने क़ाजी अहमद हुसैन को ये ज़िम्मेदारी दी के वो पुरे बिहार का दौरा करें और ज़िम्मेदार लोगों से मिलें और उनके सामने अपनी बात रखें.इन्ही सब चीज़ को ज़ेहन में रख कर क़ाजी अहमद हुसैन गया जाते हैं तो उनकी मुलाक़ात देश के प्रति इंक़लाबी जज़बात रखने वाले मुफ़्ककिर ए इस्लाम मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब से होती है. जो जमियत उल्मा ए बिहार के संस्थापक थे. यहां क़ाज़ी साहेब मौलाना आज़ाद के विचारों को मौलाना सज्जाद साहेब के सामने पेश करते हैं. सारी बात सुनने के बाद मौलाना सज्जाद साहेब फ़रमाते हैं की मौलाना आज़ाद को चाहीए के वो पहले इमारत ए शरिया के क़्याम पर ग़ौर करें. जब मुसलमान एक अमीर शरियत के अताअत को क़बूल करेगा तो उसके अंदर तंज़ीम और इत्तेहाद पैदा होगा. फिर इंक़लाब आएगा, बिना इसके इंक़लाब की कोशिश कामयाब नही सकती.इसके बाद क़ाजी अहमद हुसैन वापस रांची जाते हैं, और मौलाना आज़ाद के सामने ये फ़िक्र रखते हैं पुरी बात सुनने के बाद मौलाना आज़ाद फ़ौरन मौलाना सज्जाद साहेब से मिलने ख़्वाहिश ज़ाहिर करते हैं. फिर जब दोनो की मुलाक़ात होती है तो पुरी बात तफ़्सील में सामने आती है. और नेज़ाम ए इमारत ए शरिया का मंसुबा तय होता है. इसके बाद जमियत उल्मा ए बिहार के लोगों की एक मीटिंग मई 1921 में दरभंगा में होता है, और इस तरह मौलाना सज्जाद साहेब की कोशिश के वजह कर 26 जून 1921 को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की अध्यक्षता में ईमारत ए शरीया 500 से अधिक उल्मा ए कराम की मौजुदगी में वजूद में आता है. ख़ानक़ाह मुजिबिया पटना के मुर्शीद ए आज़ाम हज़रत मौलाना शहाबुद्दीन साहेब और ख़ानक़ाह रहमानिया मुंगेर के मुर्शीद ए अव्वल मुफ़्ककिर ए इस्लाम हज़रत मौलाना शाह मुहम्मद अली मुंगेरी के नुमाईंदे, अपने अपने शेख़ के पैग़ाम को लेकर आए और बैत किया. ख़ानक़ाह-ए-मुजीबिया के सज्जादानशीं शाह बदरूद्दीन साहब 1852-1924को अमीर ए शरियत चुना गया। मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब 1880-1940 उनके नायब चुने गए.यानी उनको नायब अमीर ए शरीयत बनाया गया.नाएब अमीर-ए-शरियत मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब हमेशा हिन्दु मुस्लिम एकता की बात करते थे. सन 1925 में जमियत उलमा-ए-हिंद के मुरादाबाद इजलास में उन्होंने अपनी सदारती तक़रीर मे साफ़ तौर पर कहा के सियासत एैन दीन है, और उनका मानना है कि मुसलमानों को कांग्रेस का साथ देना चाहिए और हिंदू मुस्लिम दोनो मिलकर इस देश को अंग़्रेजों से आज़ादी दिलवाएं. इमारत-ए-शरिया के ज़ेर-ए-क़यादत बहुत से दानिशवर और उलमा-ए-कराम जंग-ए-आज़ादी में हिस्सा ले रहे थे. इमारत ए शरिया से हर 15 रोज़ पर एक रिसाला निकलता था इमारत जिसमे शाए होने वाली इंक़लाबी तहरीरें सीधे तौर पर अंग्रेज़ो के उपर हमलावर होती थी. अंग्रेज़ो ने इस बाग़ीयाना समझा और मुक़दमा चलाया फिर जुर्माना भी वसूल किया पर इंक़लाबी मज़ामीन में कोई कमी नही आई; जिससे थक हार कर अंग्रेज़ो ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के वक़्त बैन कर दिया. तब ‘नक़ीब’ नाम से एक रिसाला निकाला गया जिसने और मज़बूती से अपनी बात रखी और ये ऱिसाला आज भी जारी है.14 अप्रैल 1940 को नक़ीब मे अपने आर्टिकल जिसका टॉपिक था ‘मुस्लिम इंडिया और हिंदू इंडिया के स्कीम पर एक अहम तबसरा में लाहौर अधिवेशन की मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब मुख़ालफ़त करते हैं और मुल्क के बंटवारे की सोच को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं. मौलाना जहाँ एक तरफ़ मुस्लिम लीग के लिए रोड़ा बन कर खड़े थे तो दूसरी तरफ़ हिन्दु महासभा की भी बखिया उधेड़ रहे थे.अमीर ए शरीयत मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब के इंतक़ाल के बाद भी इमारत शरिया उसी परम्परा के तहत काम कर रहा पर तब तक मुल्क के हालात बदल चुके थे. अंग्रेज़ अपनी फुट डालो राज करो की नीति पर कामयाब हो रहे थे हर जगह दंगे फ़साद हो रहे थे, तब इमारत-ए-शरिया ने रिलीफ़ का काम किया. गांव-गांव पहुंचे, लोगों की मदद की उस नाज़ुक दौर में जितना कर सकते थे, उतना करने की कोशिश की, और तरह से इमारत ए शरिया ने मुल्क की आज़ादी में एक अहम किरदार अदा किया. जंग-ए-आजादी में केवल हिंदुओं ने ही नहीं बल्कि मुसलमानों ने भी अपनी कुर्बानियां दीं. लेकिन आज कुछ दक्षिणपंथी ताकतें खासकर टीवी चैनल मुसलमानों को गद्दार और मदरसों और खानकाहों को आतंकी का अड्डा बताते हैं और देशद्रोही सिद्ध करने पर तुले हैं. शायद लोगों ने आजादी के इतिहास को ठीक से नहीं पढ़ा है. कुछ दिक्कतें इतिहासकारों की भी रहीं. उन्होंने मुसलमानों के योगदान को उस तरह नहीं बताया, जिस तरह हिंदू नायकों के योगदान को बताया.सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी और कृष्ण कल्कि ने अपनी किताब ” लहू बोलता है ” जिसमें वो लिखते हैं कि 1857 की लड़ाई हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर लड़ी थी और उस जंग में एक लाख मुस्लिम मारे गए थे. कानपुर से फर्रुखाबाद के बीच सड़क के किनारे जितने पेड़ थे उन पर मौलानाओं को फांसी पर लटका दिया गया था. इसी तरह दिल्ली के चांदनी चौक से लेकर खैबर तक जितने पेड़ थे उन पर भी उलेमाओं को फांसी पर लटकाया गया था. 14 हजार उलेमाओं को सजा-ए-मौत दी गई थी. जामा मस्जिद से लाल किले के बीच मैदान में उलेमाओं को नंगा कर जिंदा जलाया गया. लाहौर की शाही मस्जिद में हर दिन 80 मौलवियों को फांसी पर लटका कर उनकी लाशें रावी नदी में फेंक दी जाती थीं. कादरी साहब ने लिखा है कि फांसी पर चढ़ने वाले और काला पानी की सजा पाने वालों में 75 प्रतिशत मुसलमान थे. इतना ही नहीं, ये मुसलमान हैदर अली और टीपू सुल्तान के समय से ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे. कई मुसलमानों को सरेआम 500 सौ से लेकर 900 कोड़े तक मारे गए. अवाम में यह झूठ फैलाया गया कि इकबाल टू नेशन थ्योरी के पैरोकार थे जबकि उन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ गीत लिखा था. जिस दिन आजादी मिली उस रात पार्लियामेंट में मौजूद लोगों ने यह तराना कोरस में गाया था.सभी खून है शामिल यहाँ की मिट्टी में,किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़े ही हैजंगे आज़ादी में जोश जगाने वाले तक़रीबन नारे हमने दिए हैं.”भारत छोड़ो” और “साइमन वापस जाओ” का नारा युसुफ मेहर अली ने दिया था।सुरैया तैयब जी ने तिरंगा को वह रूप दिया जो हम आज देखते हैं।अल्लामा इकबाल ने तराना-ए-हिंद ”सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा लिखा था।”जय हिंद” का नारा आबिद हसन साफरानी ने दिया था।”इंकलाब जिंदाबाद” का नारा हसरत मोहानी ने दिया था।सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है इसे 1921 में बिस्मिल अज़ीमाबादी ने लिखा था। जब ये लोग अंग्रेज़ों की ग़ुलामी कर रहे थे और आरएसस जैसे तथाकथित राष्ट्रवादी संगठन ने अपने आपको सांस्कृतिक संगठन बताकर जंगे आज़ादी से अलग कर लिया था, तब भी हमारे पूर्वज, मौलाना, हाफिज़, मुफ्ती, आम मुसलमान और मदरसे और खानकाहों के साथ मिलकर जंगे आज़ादी में हिस्सा लेकर जान की बाज़ी लगा रहे थे और कुर्बानियां दे रहे थे. आज मुल्क में सबसे अधिक खतरा संघ परिवार से है. ये लोग मुसलमानों के योगदान को नकार कर हिंदू राष्ट्र बनाने का ख्वाब देख रहे हैं.तब जश्ने आज़ादी की 75 वीं सालगिरह पर दिल ने चाहा कि देशहित में जंगे आज़ादी के उन अज़ीम मुजाहिदीन मदारिस और खानकाहों से मुल्क के नौजवानों को रूबरू कराया जाये. जिन्हें दुनिया भुला चुकी है. मीडिया तो क्‍या आम मुसलमान भी उन्हें भूल गया फिर किसी और से क्या शिकायत वे तो अपने लोगों का डंका पीटेंगे ही. कुछ लोग हैं इतिहास को मिटाने और बदलने में लगे हैं. ऐसे लोगों को जंगे आज़ादी का मुजाहिद बताया जा रहा है जिनका जंगे आज़ादी से कोई सरोकार नहीं था. जो अंग्रेज़ों के मददगार थे. ऐसे में जंगे आज़ादी के इन मुजाहिदीन का मदरसों और खानकाहों के बारे में बात करना और इन के किरदार को पढ़ना बहुत ज़रूरी है.यूनान मिश्र रूमा सब मिट गए जहां सेबाकी मगर है अब तक नामो निशां हमाराकुछ बात है कि हस्ती,मिटती नहीं हमारीसदियों रहा है दुश्मन,दौर ए जहां हमारा(ये आर्टिकल इमरान अहमद ने कलाम रिसर्च फाउंडेशन के लिए लिखा है)

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