शरजील इमाम : रिसर्च स्कॉलर जेएनयू
(यह समझना जरूरी है कि चुनाव संचालन कराने और प्रतिनिधियों को चुनने के तरीके में मूलभूत परिवर्तन किए बिना एक बड़ी आबादी का विधानसभा या लोकसभा के चुनावों में प्रतिनिधित्व संभव नहीं है। इस कमी को दूर करके हम असली लोकतंत्र की ओर एक कदम और बढ़ा पाएंगे।)
अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए जिन संस्थागत सुधारों की आवश्यकता सबसे ज़्यादा है, उनमें चुनाव प्रणाली में सुधार प्रमुख है। भारत में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव First Past the Post (FPTP) प्रणाली के तहत होते हैं। इस प्रकार की चुनावी प्रणाली में राज्यों को भौगोलिक आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा जाता है और हर निर्वाचन क्षेत्र से एक ही प्रतिनिधि चुना जाता है। उम्मीदवारों को मतदान के माध्यम से चुना जाता है और सबसे अधिक मत पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित किया जाता है, भले ही उस उम्मीदवार को कुल मतदान का 20 प्रतिशत से भी कम वोट क्यूं न प्राप्त हुआ हो।
अंग्रेज़ों की दी हुई इस चुनावी प्रणाली से हम आज़ादी के बाद भी अपना प्रतिनिधि चुन रहे हैं। इस प्रणाली में लगभग एक तिहाई (33%) वोट पाने वाली पार्टियों को दो तिहाई (66%) सीटें मिल जाती हैं। इसी प्रणाली के कारण कांग्रेस ने 35% वोट पा कर 60% सीटों पर कब्ज़ा जमाया और इसी प्रणाली की देन है की भाजपा ने 2019 में मात्र 37% वोट लाकर लोकसभा की 56% सीटें हासिल कर लीं।
FPTP के कारण हुए असंतुलन की मिसाल हाल में हुए विधानसभा चुनावों में भी दिखती है। बिहार में भाजपा और महागठबंधन दोनों को ही 37-38% वोट मिले मगर भाजपा गठबंधन को 51.4% सीटें मिलीं जबकि महगठबंधन को 45.3% सीटें हासिल हुईं। 2021 के असम विधानसभा चुनाव में NDA को 45% वोट मिले मगर उन्हें 59.5% सीटें हासिल हुई। उसी साल बंगाल में 48.5% वोट लाने वाली तृणमूल कांग्रेस को 73% सीटें मिलीं जबकि 38.5% वोट लाने वाली भाजपा को केवल 26.4% सीटें ही प्राप्त हुई और अन्य को 9.4% वोट लाकर भी केवल 2 सीट ही मिली। केरल में 41.5% वोट लाकर एलडीएफ ने 67% सीटें जीतीं जबकि 38.4% वोट पाने वाली यूडीएफ को केवल 28.6% सीटें ही प्राप्त हुई और अन्य पार्टियों को 11.4% वोट मिलने के वावजूद एक भी सीट नहीं मिली।
यही असंतुलन 2014 के लोकसभा चुनाव में भी देखा जा सकता है जब उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 42.6% वोट पाकर 89% सीटों पर कब्जा किया जबकि समाजवादी पार्टी को 22% वोट लाकर भी 5 सीट ही मिली। इसी तरह बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को 39.8% वोट प्राप्त हुए और उन्हें 34 सीटें मिली जबकि सीपीआई(एम) को 22.6% वोट प्राप्त होने के बावजूद केवल 2 सीट ही मिली।
2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पंजाब में 40.6% वोट के बदले 8 सीट मिली जबकि शिरोमणि अकाली दल को 27.8% वोट के बदले 2 सीट ही प्राप्त हुई। छत्तीसगढ़ में भाजपा को 51.4% वोट प्राप्त हुए जिसके आधार पर उन्हें 9 सीटें मिली जबकि कांग्रेस को 41.5% वोट मिलने के बाद भी 2 सीट ही प्राप्त हुई।
राज्य पार्टी सीटों की संख्या वोट प्रतिशत
उत्तर प्रदेश
BJP 71 42.6%
SP 5 22%
बंगाल
AITC 34 39.8%
CPI(M) 2 22.96%
Table 1: Lok Sabha Election 2014
राज्य पार्टी सीटों की संख्या वोट प्रतिशत
पंजाब INC 8 40.6%
SAD 2 27.8%
छत्तीसगढ़ BJP 9 51.4%
INC 2 41.5%
Table 2: Lok Sabha Election 2019
ऊपर दिए गए डेटा से यह साफ हो जाता है कि FPTP प्रणाली में सीट प्रतिशत वोट प्रतिशत से मेल नहीं खाता और कभी-कभी यह असंतुलन बेहद गहरा होता है। दूसरी बात जो साफ है वह यह के FPTP प्रणाली में चुनाव द्विध्रुवीय हो जाता है क्यूंकि ज्यादातर मतदाता हार रहे उम्मीदवार या पार्टी को वोट देकर अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहते। इस तरह इलेक्शन दो ताकतवर उम्मीदवारों के बीच का मुकाबला बन कर रह जाता है और बाकी उम्मीदवार मुकाबले से बाहर हो जाते हैं। एक और बात जो स्पष्ट हो जाती है वह यह कि भारत में FPTP प्रणाली से होने वाले चुनावों में अधिकांश वोट “बर्बाद” हो जाते हैं और वोटों का एक छोटा हिस्सा ही प्रतिनिधि का चुनाव करता है।
यह हमारी शिक्षा व्यवस्था और प्रजातंत्र के असली मायनों के समझ की कमी का परिणाम है कि ज्यादातर मतदाताओं को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि चुनाव किसी दूसरे तरीके से भी संपन्न कराए जा सकते हैं और FPTP में इतनी खामियां हैं। ऐसा लगता है जैसे इस विशाल प्रजातंत्र ने चुनाव कराने और प्रतिनिधियों को चुनने के इस तरीके को एक ईश्वरीय व्यवस्था मान लिया है।
एक दूसरी मिसाल देखें। मान लें की तीन पार्टियां (P1, P2, P3) चुनाव लड़ रही हैं। दूसरी (P2) और तीसरी पार्टी (P3) के बीच गठबंधन है और उन्हें 65 (33+32)% वोट प्राप्त होते हैं और विरोध में लड़ रही पहली पार्टी (P1) को 35% वोट प्राप्त होते हैं। इस परिस्थिति में P2 और P3 का गठबंधन सारी सीटें जीत लेता है जबकि P1 को एक भी सीट नहीं मिलती। इस तरह का परिणाम बिहार में 2015 में देखने को मिला जब आरजेडी और जेडीयू ने गठबंधन किया और एकतरफा जीत हासिल की। और यह कोई इकलौता मामला नहीं है। यह पिछले 70 सालों से हो रहा है; जनता का लगभग आधा वोट सीधे “बर्बाद” होता है। इसका एक महत्वपूर्ण परिणाम यह होता है कि जहां एक तरफ़ ज्यादातर वोट “बर्बाद” होते हैं वहीं दूसरी तरफ वोटों का एक छोटा प्रतिशत विशाल संख्या में सीटें पा लेता है। कांग्रेस को 50 और 60 के दशक में और अभी भाजपा और आप को इसी तर्ज़ पर एकतरफा जीत मिल रही है। इसी प्रणाली की देन है कि बहुजन समाजवादी पार्टी को 2014 में 4% वोट लाने के बावजूद एक भी सीट नहीं मिली। भारत जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से विविध देश में यह प्रणाली प्रजातंत्र विरोधी है। इस प्रणाली का दूसरा बड़ा नुकसान यह है कि छोटी पार्टियां अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाती और उन्हें:
- गठबंधन का हिस्सा बनना पड़ता है, या
- वोट कटवा होने का आरोप झेलना पड़ता है जैसा कि MIM के साथ बिहार में और वाम दलों के साथ बंगाल में हुआ, या
- बिना चुनाव लडे बाहर से समर्थन देने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
मान लीजिए, ऊपर चर्चा किए गए P1-2-3 मामले में, एक मामूली तबदीली होती है और P1 से 5% वोट लेकर एक गुट उभरता है। इसका मतलब यह होगा कि P1 30% पर सिमट गया है और P2 को 33% के साथ सभी सीटों पर जीत मिली है, और P1 को 5% वोटों के साथ 0 सीटें मिलेंगी और उन्हें “वोट काटने वाला” और P2 के खुफया एजेंट होने के इलज़ाम का सामना करना पडेगा।
ऐसी खतरनाक व्यवस्था स्वस्थ जमातबंदी पर रोक लगाती है और इजारेदारी को बढ़ावा देती है। चूँकि भारतीय व्यवस्था में कार्यपालिका और विधायिका अलग नहीं हैं (वेस्टमिंस्टर मॉडल के अनुसार) और दोनों एक ही चुनाव के माध्यम से निर्वाचित हैं, और न ही यहाँ यूके की तरह जमीनी स्तर से उम्मीदवारों का चयन किया जाता है, इसलिए इस 30% वोटों का एकाधिकार है कई गुना। यही कारण है कि कांग्रेस या भाजपा के लिए केवल एक तिहाई मतदाताओं के साथ सरकार की सभी शाखाओं पर हावी होना आसान हो गया है।
FPTP प्रणाली के तहत होने वाले संयुक्त चुनाव अल्पसंख्यकों को अपना प्रतिनिधि चुनने के मामले में असहाय बना देते हैं और इस लिहाज से यह एक बेहद खराब प्रणाली है। इस तरह की प्रणाली छोटी-छोटी आबादियों में बिखरे हुए धार्मिक अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों के लिए खास तौर पर नुकसानदेह है क्योंकि वह एक ही विचारधारा का समर्थन करके भी अपने बूते पर एक भी क्षेत्र नहीं जीत सकते।
FPTP की एक दूसरी बहुत बड़ी कमी यह है कि इसमें निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं को निर्धारित करने का अंतिम अधिकार कार्यपालिका के पास होता है। बंटवारे के बाद से ही इस अधिकार का दुरुपयोग अल्पसंख्यकों को बिखेरने और उनकी चुनावी शक्तियों को कम करने के लिए किया जा रहा है। खासकर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को इस तरह विभिन्न सीटों में बांट दिया जाता है कि वह किसी भी एक सीट के परिणाम पर विशेष प्रभाव न डाल सकें। यह अमेरिका में भी कार्यपालिका का एक जांचा परखा तरीका है जहां इसे gerrymandering कहा जाता है और इसका इस्तेमाल अश्वेत और लैटिन मतदाताओं की चुनावी शक्तियों को कम करने के लिए किया जाता है। FPTP को खारिज करने के लिए इस प्रणाली में कार्यपालिका को निर्वाचन क्षेत्रों के सीमा निर्धारण के लिए मिली मनमानी शक्ति का दुरुपयोग ही पर्याप्त है।
इस प्रकार की गंभीर खामियों को देखते हुए यह पूछना उचित होगा कि क्यों हमारे पूर्वज एक बेहतर प्रणाली के बारे में नहीं सोच पाए। क्या कोई बेहतर प्रणाली उपलब्ध नहीं थी? इसका जवाब पेचीदा है। संविधान सभा की बहस पर नजर डालने पर कांग्रेस द्वारा अलग निर्वाचक मंडल समाप्त करने के फैसले पर असहमति साफ पता चलती है। कुछ मुसलमानों ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग तब भी रखी थी। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि अलग निर्वाचक मंडल में एक बड़ी खामी थी- हिंदू मुसलमानों के लिए और मुसलमान हिंदुओं के लिए निर्धारित सीटों पर वोट नहीं दे सकते थे। हालांकि हसरत मोहानी ने इस मुद्दे को उठाया लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि FPTP प्रणाली के साथ संयुक्त निर्वाचक मंडल के प्रावधान से मुस्लिम प्रतिनिधित्व पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। वह FPTP प्रणाली के सबसे मुखर विरोधी थे। संविधान सभा के कुछ अन्य सदस्यों के साथ मिलकर उन्होंने आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग रखी जिसके तहत किसी भी पार्टी को मिलने वाली सीटों की संख्या उन्हें प्राप्त होने वाले वोट प्रतिशत से निर्धारित होगी।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation, PR) में मुसलमान हिंदुओं के लिए और हिंदू मुसलमानों के लिए वोट दे सकते हैं मगर अल्पसंख्यकों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आनुपातिक प्रतिनिधित्व (PR) वैचारिक मतदान सुनिश्चित करता है। जब बहुसंख्यकवाद का खतरा हो तो यह अल्पसंख्यकों को एकजुट होकर उसे रोकने में मदद करता है और जब यह खतरा टल जाए तो अल्पसंख्यक समूह अपने अंदरूनी जाति और वर्ग के मुद्दों पर मतदान कर सकते हैं।
ऊपर दिए गए P1, P2, P3 के उदाहरण में यदि कुल सीटों की संख्या 100 है तो FPTP प्रणाली में P3-P2 गठबंधन को सारी सीटें मिलेंगी जबकि P1 को एक भी नहीं। मगर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में वोट प्रतिशत के हिसाब से P1 को 35, P2 को 33 और P3 को 32 सीटें मिलेंगी। आनुपातिक प्रतिनिधित्व की ऐसी प्रणाली न्यूजीलैंड, तुर्की और श्रीलंका में अपनाई गई है। इस तरह की प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि यदि वोट प्रतिशत एक न्यूनतम सीमा को पार कर जाए तो वो बर्बाद ना हो। यह न्यूनतम सीमा 1%, 2%, या 5% हो सकती है। तुर्की में यह 10% है। इसका दूसरा फायदा यह है कि कोई भी पार्टी “वोटकटवा” नहीं होती, कोई किसी को “हरा” नहीं सकता। जनता के प्रतिनिधि जनता द्वारा डाले गए वोट प्रतिशत के अनुपात में चुने जाते हैं। तीसरा फायदा यह है की इस प्रणाली में छोटी पार्टियां छोटे वोट प्रतिशत (जैसे 2%) के साथ चुनाव लड़ने की शुरुआत कर सकती हैं। इस तरह की प्रणाली का प्रस्ताव रखने पर कांग्रेसियों ने हसरत मोहानी का भारी विरोध किया था। कुछ सदस्यों की राय थी कि यह प्रणाली बेहद पेचीदा होगी। लेकिन इस उपमहाद्वीप की विविधता को देखते हुए यहां लोकतंत्र को पेचीदा होना ही चाहिए। हालांकि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियों और कुछ अल्पसंख्यक समुदायों को इसका नुकसान भी हो सकता है जैसा कि उन्हें आज भी इस मौजूदा प्रणाली में हो रहा है जिसमें उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। कांग्रेस को एकाधिकार चाहिए था और केवल FPTP ही वैकल्पिक विचारधाराओं और समूहों को उभरने से रोककर उसे यह एकाधिकार दे सकता था।
दलित प्रतिनिधित्व के सवाल पर भी FPTP का प्रभाव महत्वपूर्ण है। दलित विचारक भी यह भली-भांति समझते हैं कि दलितों के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र उच्च जातियों की पार्टियों के लिए प्रॉक्सी के रूप में काम करते हैं, जो अपने उम्मीदवारों को खड़ा करते हैं और अक्सर उच्च जातियों के मतदाताओं द्वारा चुनकर आते हैं।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व में इस प्रकार की निर्भरता नहीं होगी और वैचारिक आधार पर बिना डरे मतदान किया जा सकेगा। अंबेडकरवादी नेताओं को बिना उच्च जातियों के वोटरों की मेहरबानी के चुना जा सकेगा। इस तरीके को अपनाने पर आगे चलकर आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की जरूरत समाप्त हो जाएगी और एससी एसटी सदस्यों की एक न्यूनतम संख्या सदन में सुनिश्चित होगी। यह प्रणाली अल्पसंख्यकों और हिंदू और मुसलमानों की छोटी पिछड़ी जातियों की भी मदद करेगी जिनकी आवाज़ बिहार में कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे लोहियावादी नेताओं ने उठाई है। यह समझना जरूरी है कि चुनाव संचालन कराने और प्रतिनिधियों को चुनने के तरीके में मूलभूत परिवर्तन किए बिना एक बड़ी आबादी का विधानसभा या लोकसभा के चुनावों में प्रतिनिधित्व संभव नहीं है। इस कमी को दूर करके हम असली लोकतंत्र की ओर एक कदम और बढ़ा पाएंगे जिसे पूरी तरह हासिल करने के लिए हमें:
- संघीय ढांचे को समझना और लागू करना होगा।
- विधायिका और कार्यपालिका को पूरी तरह अलग करना होगा।
हालांकि यह मुद्दे खुद में ही एक बड़ी बहस और चर्चा की मांग करते हैं।
हमारा पहला कदम एक ऐसी विधायिका बनाने की ओर होना चाहिए जो लोगों का सही मायनों में प्रतिनिधित्व करती हो। हमें FPTP प्रणाली को समाप्त करना चाहिए क्यूंकि इसमें अधिकांश वोटों की “हार” होती है और इसमें युद्ध की भावना है जिसमें जीत और हार ही दो विकल्प हैं।
भारत के मुसलमान इस प्रणाली के सबसे बड़े भुक्तभोगी रहे हैं जैसा कि पिछले 70 साल के हर विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में उनके प्रतिनिधित्व के डाटा से पता चलता है। आज भाजपा जो कर रही है वह कांग्रेस ने दशकों तक किया है। भाजपा ने संस्थाओं को कमजोर नहीं किया, यह प्रक्रिया शुरू से ही गलत थी। नए राजनीतिक समीकरण, नए नेता और नई पार्टियां मिलकर भी अल्पसंख्यकों और छोटी पिछड़ी जातियों की मदद नहीं कर सकतीं। हमें चुनाव की कल्पना और इसे संपन्न कराने के तरीकों में मूलभूत बदलाव करने की तत्काल आवश्यकता है। इस व्यवस्था को एक पारदर्शी और सच्चे प्रतिनिधित्व वाले लोकतंत्र में बदलना हमारी जिम्मेदारी और ज़रूरत है।
यहां प्रयास यह किया गया है की व्यवस्था दो पार्टियों के बीच में ही झूलती रहे। कुछ लोग “टू (Two) पार्टी सिस्टम” की वकालत करते हैं जिसमें भाजपा और कांग्रेस दो राष्ट्रीय पार्टियां ही हों। पिछले कुछ सालों में राष्ट्रीय मेनस्ट्रीम मीडिया इस दिशा में आम राय बनाने की कोशिश करता दिखा है। इस मामले में हम अमेरिका का अनुसरण करना चाहते हैं मगर दुर्भाग्य है की उनके संघीय ढांचे की सारी खूबियों को नजरअंदाज करके हम अमेरिकी व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी को अपनाना चाहते हैं। भारत और दक्षिण एशिया में राज्यों के बीच, और राज्यों के भीतर भी अनेक मामलों में बहुत प्रकार की विविधता है। यहां दो पार्टियों का विचार सीधे तौर पर अलोकतांत्रिक है। मगर भारतीय व्यवस्था को इस प्रकार बनाया ही गया है कि यहां अनेक पार्टियों का एक साथ उभार संभव नहीं है। भाजपा का “बहुसंख्यकवाद” कांग्रेस द्वारा अपनाई गई FPTP प्रणाली के द्वारा ही संभव हो पाया है जिसे कांग्रेस ने अपने फ़ायदे के लिए स्थापित किया था।
लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर जबानी जमा-खर्च करना आसान है मगर अल्पसंख्यकों को असहाय बनाने वाली और बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने वाली व्यवस्थागत कमियों की पहचान करना मुश्किल है। FPTP को समाप्त करके आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional Representation) को अपनाना अल्पसंख्यकों तक लोकतंत्र के फायदे पहुंचाने के लिए संभवतः सबसे जरूरी संरचनात्मक परिवर्तन है जिसकी तत्काल आवश्यकता है। सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को चाहिए कि वे सेकुलरिज्म पर बयानबाजी करने के बजाय इस मुद्दे पर गहराई से विचार करें।
(मकतूब मीडिया में प्रकाशित लेख का अंग्रेजी से अनुवाद है।)
शरजील इमाम एक मुस्लिम छात्र नेता और जे एन यु में रिसर्च स्कॉलर हैं। वह वर्तमान में 2020 के दिल्ली पोग्रोम और अन्य कई मामलों में कथित भूमिका के लिए आतंकवाद विरोधी कानून के तहत कैद है। लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं।