✍️ अभय कुमार
अतीक अहमद को लेकर मीडिया ने जो छवि बनाई, उससे हम भी प्रभावित हुए नहीं रह सकते थे. उनकी छवि एक ‘गैंगस्टर’ की थी. कहा जाता था कि उनके तार बड़े नेताओं से जुड़े थे. कई मामलों में उनपर हिंसा के आरोप भी थे. सच्चाई जो भी, कानून से बड़ा कोई नहीं है. जो भी कानून तोड़े, उसके खिलाफ कार्रवाई ज़रूर होनी चाहिए. अतीक अहमद कोई अपवाद नहीं था. अदालतें उसके खिलाफ मामलों की सुनवाई कर रही थीं. लेकिन दुख की बात यह है कि न्यालय के फैसले का इंतजार किए बग़ैर, अतीक और उसके भाई अशरफ को बेरहमी से मार दिया गया. कुछ रोज़ पहले उसके बेटे असद अहमद का एनकाउंटर कर दिया गया.
फायरिंग के बाद हमलावरों ने “जयश्री राम” के नारे भी लगाए. सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक ताकतें इस बर्बर हत्याकांड का जश्न मना रही हैं. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि लोकतंत्र का स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया भी हत्या और एनकाउंटर की संस्कृति को छुपे या ढके तौर से ठीक बता रहा है. टी.वी. बहस के दौरान, मानवाधिकारों के उल्लंघन और बद-अमनी की स्थिति पर चर्चा नहीं की जा रही है. पूरे मामले को राष्ट्रीय मीडिया सांप्रदायिक रंग दे रहा है. यह सब देखकर लग रहा है कि अतीक और उसके भाई पर गोलियां भले ही चलाई गईं, लेकिन खून क़ानून का बह रहा है.
पुलिस हिरासत में अतीक और उसके भाई पर हमला होना सामान्य बात नहीं है. जब उत्तर प्रदेश पुलिस की मौजूदगी में जब कोई नागरिक सुरक्षित नहीं है, तो राज्य में कानून व्यवस्था कैसे होगी? राष्ट्रीय मीडिया के कैमरों के सामने गोली चलाई गई. मीडिया के कैमरे में फायरिंग कैद भी हुई. अब यह ‘फुटेज’ सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है. हालाँकि पहले भी हत्याएं हुई हैं, लेकिन इस बार अंतर यह है कि इस भयावह दृश्य का जश्न मनाया जा रहा है.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ‘एनकाउंटर संस्कृति’ की तारीफ़ हो रही है! पल भर में न्याय देने के महत्व पर जोर दिया जा रहा है! ऐसा तर्क देने वाले लोग कभी नहीं सोचते कि अगर ऐसा ही रिवाज चल पड़ा, तो अदालतें क्या करेंगी? जब अदालतें बंद होंगी, तो क्या लोकतंत्र ज़िंदा रह पाएगा?
आखिर फायरिंग के बाद हमलावरों ने ‘जय श्री राम’ के नारे क्यों लगाए? पहली नजर में ऐसा लगता है कि उन्होंने अपनी गंदी जुबान से भगवान के नाम को बदनाम किया है. लेकिन जब हम कुछ देर और सोचते हैं तो लगता है कि यह सब साम्प्रदायिक शक्तियों की एक सोची-समझी साजिश के तहत किया था. अतीक मुस्लिम था और गैर-बीजेपी दलों से उनके संबंध थे. इसलिए हत्यारों ने उसे गोली मारने के बाद धार्मिक नारे लगाए. वे कट्टरपंथियों को यह संदेश देना चाहते थे कि उन्होंने ने एक “मुस्लिम” अपराधी को मारा है और इस प्रकार उन्होंने ने हिंदू समाज के सामने मौजूद एक बड़े ख़तरे को समाप्त कर दिया! वे धार्मिक नारे दे कर बहुसंख्यक समुदाय की सहानुभूति लेने की भी चेष्टा कर रहे थे.
भाजपा बार-बार अपने को हिन्दू समाज का एकमात्र प्रतिनिधि बताती है और अपने विरोधी दलों को “मुसलमानों की पार्टी” कहकर उन्हें हिन्दुओं की नज़रों में बदनाम करने की कोशिश करती है. अतीक के मामले में भी समाजवादी पार्टी पर हमले हो रहे हैं. साम्प्रदायिक ताकतें अफवाह फैला रही हैं कि अतीक को बचाने में पिछली सेक्युलर पार्टियों की “नकारात्मक” भूमिका रही है, जबकि मौजूदा सरकार ने उसे सजा दी है और न्याय किया है.
आप भी महसूस कर रहे होंगे कि अतीक के परिवार को इंसाफ दिलाने की जगह, पूरे मामले को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है. शायद इस का मकसद अगले साल होने वाले आम चुनाव से ठीक पहले चरमपंथी तत्वों को खुश करना भी है और उनको यह संदेश दिया देना है कि उत्तर प्रदेश की सरकार हिंदुत्व के एजेंडे को तेजी से लागू कर रही है. भाजपा सरकार खुद जानती है कि वह लोक-कल्याणकारी काम करने में विफल रही है. इसलिए उसकी मजबूरी है कह वह साम्प्रदायिकता की आग को किस भी तरह जलाए रखे.
अतीक की हत्या की ‘टाइमिंग’ पर कई राजनीतिक टिप्पणीकारों ने सवाल उठाए हैं. हत्या से एक दिन पहले जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें उन्होंने ने 2019 के पुलवामा हमले के बारे में महत्वपूर्ण बातें कही थीं. पूर्व राज्यपाल मलिक का दावा था कि पुलवामा हमला सरकार की विफलता के कारण हुआ है. उन्होंने ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पीरी गंभीर आरोप लगाये और कहा कि प्रधानमंत्री कप भ्रष्टाचार से नफरत नहीं है. टिप्पणीकारों का दावा है कि मोदी सरकार अपने ही राज्यपाल के बयान से घबराहट में थी. सरकार किसी भी हाल में सनसनीखेज बातों को लोगों की नजरों से दूर रखना चाहती थी. जिस तरह अतीक हत्याकांड के शोर में सत्यपाल मलिक का बयान को कुछ हद तक दब कर रह गया है, वह टिप्पणीकारों की दलीलों को मज़बूती प्रदान कर रहा है. मुख्यधारा का मीडिया पहले से ही मालिक के इंटरव्यू पर खामोसी इख़्तियार किया हुआ है.
अतीक और उसके भाई की हत्या के भयावह दृश्य ने उत्पीड़ित वर्गों और अल्पसंख्यकों के दिलों में भारी आक्रोश भर दिया है. आज वे अपने ही देश में ख़ुद को अकेला महसूस कर रहे हैं. उन्हें अपनी जान-माल की चिंता बढ़ती जा रही है. हर मां-बाप दरवाजे पर ताक रहे हैं कि उनकी बेटी और बेटा सकुशल घर लौटे आये. अतीक और उसके भाई और बेटे की मौत हो चुकी है, लेकिन उन गोलियों की आवाज और मृतकों की चीख-पुकार हर तरफ गूंज रही है. यह किसी भी सरकार की बड़ी विफलता है कि नागरिक हमेशा अपनी जान और माल के बारे में चिंतित रहता है. यदि कोई नागरिक अपने जीवन के संबंधित सुरक्षा के बारे में इतना डरा रहेगा. तो वह राष्ट्र-निर्माण में अपनी कैसे अपनी सेवाएं दे पाएगा?
डर की वजह उत्तर प्रदेश में क़ायम “बुलडोजर राज” है, जिसकी निंदा करने के बजाय उसका जश्न मनाया जा रहा है. देश में ज्यादातर लोग अपने पूरे जीवन में छत नहीं बना पाते, लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के शासन में कमजोरों का घर लगातार ध्वस्त किया जा रहा है. त्रासदी यह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को उनके भक्तों “बुलडोजर बाबा” कह कर उनका महिमामंडन करते हैं. मगर वह यह भूल जाते हैं कि बुलडोजर किसी मकान को तोड़ सकता है, बना नहीं सकता. मतलब यह कि प्रदेश के सबसे बड़े नेता की पहचान घर तोड़ने वाले की बन गई है, और इस पर जश्न भी मनाया जा रहा है!
क्या यह सच नहीं है कि उत्तर प्रदेश में बुलडोजर लोगों की जाति और धर्म देख कर चलाया जा रहा है? जहां राज्य की पुलिस कमजोर वर्गों को सुरक्षा देने में विफल है, वहीं एक विशेष जाति और धर्म के माफियाओं, गैंगस्टरों और अपराधियों को सत्ता का संरक्षण प्राप्त है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राज्य में मानवाधिकारों का लगातार हनन हो रहा है. एक धर्म विशेष में पैदा हुए लोगों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है. जहां कार्यपालिका का निरंकुश हो जाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, वहीं अदालतों का नागरिक अधिकारों की रक्षा की अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल होना, निराशाजनक है. मीडिया का हाल तो और भी बुरा है. टीवी चैनल का स्टूडियो ‘कंगारू कोर्ट’ में बदल गया है. विपक्ष का कहना ग़लत नहीं है कि भारतीय राजनीति बुरे दौर से गुजर रही है.
जहां कानून कहता है कि एक अभियुक्त को तब तक दोषी नहीं माना जाएगा, जब तक उसके ख़िलाफ़ आरोप साबित नहीं हो जाये, वहीं अदालत के फ़ैसले से पहले ही मुलज़िम को सज़ा दे दे जा रही है. महात्मा गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे पर भी मुकदमा चला था, फिर उन्हें अदालत ने सजा सुनाई. न की उनका एनकाउंटर हुआ था. लेकिन उत्तरप्रदेश के बुलडोजर राज में कोर्ट और कानून को दरकिनार किया जा रहा है. संवैधानिक पद पर बैठने से पहले, संविधान की शपथ लेने वाला प्रदेश का मुख्यमंत्री योगी आदितायनाथ, माफियाओं को मिट्टी में मिलाने की बात कह रहा है और इस तरह जाने अनजाने में वह एनकाउंटर संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है. क्या उनको यह बात मालूम नहीं है कि उनकी ही पार्टी में बड़ी संख्या में “अपराधी छवि” नेता हैं? क्या वे उन्हें भी मिट्टी में मिलाने के लिए तैयार हैं?
हालाँकि देश का आम नागरिक किसी के खिलाफ अवैध कार्रवाई का समर्थन नहीं करता है. वह तो एनकाउंटर संस्कृति के बिल्कुल ख़िलाफ़ है. वह किस के ख़िलाफ़ इसका इस्तेमाल नहीं चाहता. याद रहे कि एनकाउंटर संस्कृति लोकतंत्र को अराजकता, क्रूरता और तानाशाही की ओर ले जाती है.
(डॉ अभय कुमार एक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक और शिक्षक हैं. उनकी पी.एच.डी. (2020) जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के ‘सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज़’ से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के विषय पर है . उनकी गहरी दिलचस्पी भारतीय मुसलमान, अल्पसंख्यक और वंचित समुदाय, सामाजिक न्याय और मानवाधिकार, मीडिया और भाषा से जुड़े विषयों में है)