✍️ अब्दुल रकीब नोमानी
बिहार देश का एकलौता ऐसा राज्य है. जहां के अधिकारियों से विपक्ष को तो छोड़ ही दीजिये, सत्ता पक्ष के नेता भी परेशान रहते है। बिहार के मौजूदा समय में अधिकारी सब अपने हिसाब से मंत्री, एमपी और एमएलए को जब मन होता इन सबों को हड़का देते हैं। इसी बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आम जनता से बिहार के अधिकारी किस तरह से पेश आते होंगे। यहाँ के अधिकारियों का रवैय्या आमजन के लिए किया होता होगा? बड़े अधिकारी तक कितने आमजन तक की पहुँच होती होगी? सीधी सी बात है जब ये लाखों लोगों के नुमाइंदे को पहचानने और सुनने से इंकार कर बैठते हैं तो ऐसे में आम इंसान की बिसात ही किया होगी। जिसको समय-समय पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं के दर्द के रूप में देखा जाता रहा है। बिहार विधानसभा और विधानपरिषद का कोई भी सत्र ऐसा नहीं जाता होगा, जिसमें माननीयों के तरफ से बिहार के अधिकारियों के मनमाने तरीके के खिलाफ़ आवाजें ना उठती हों। लेकिन इन सब के बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार है कि जश के तश खड़े दिखते हैं।
नया मामला बिहार सरकार के समाज कल्याण मंत्री मदन सहनी से जुड़ा हुआ है। जिन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि मुझे दो महीने से विभागीय फाइल अनुमोदन के लिए नहीं मिल रही है। विभाग में कोई काम नहीं हो रहा है। सभी काम थप के थप पड़े हुए हैं। इसी वज़ह से मैंने पटना रहना छोड़ दिया है। वहां रहकर क्या करता? ये आरोप उन्होंने विभाग की अपर मुख्य सचिव हरजौत कौर पर लगाया है। जिन्होंने यहाँ तक कह दिया कि अपर मुख्य सचिव हम से बात तक नहीं करती है। हम हर वक़्त झगड़ा नहीं कर सकते हैं. इसलिए मैं दरभंगा आ गया हूँ। आप सोच के देखिए एक झगड़े के वज़ह से मंत्रालय का काम पिछले दो महीने से रुका हुआ है। इनसे किनका नुक़सान हो रहा है? आखिर इनके जिम्मेदार कौन हैं? बे-लगामी का आलम ये है कि एक अधिकारी खुद को इतनी ताक़तवर समझ बैठी है कि वो अपने विभाग के मंत्री से बात तक नहीं कर रही है। मंत्री और अधिकारी के रस्साकशी के बीच आम लोगों के काम पिछले दो महीने से रुके हुए हैं।
ये कोई पहला मामला नहीं है. बल्कि इनसे पहले भी आरजेडी कोटे से शिक्षा मंत्री रहे चंद्रशेखर प्रसाद यादव और विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक के बीच महीनों तक नूरा-कुश्ती चली थी। विवाद इतना गहरा गया था कि मंत्री जी के आप्त सचिव कृष्ण नंदन यादव तक को मंत्रालय आने से बैन कर दिया गया था। मंत्री जी खुद क़रीब एक महीने तक मंत्रालय के कार्यालय नहीं गए थे। कार्यालय को केके पाठक के तरफ से मंत्री जी के जवाबी पत्र लिखे जाने तक को मना कर दिया गया था। दरअसल ये विवाद पीत पत्र के लिखे जाने के बढ़ा था। क्योंकि मंत्री जी विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक के कामों से नाराज़ चल रहे थे। आरोप ये था कि वो मंत्री जी की थोड़ी भी नहीं सुन रहे हैं। मंत्रालय से जुड़े सारे फ़ैसले अपर मुख्य सचिव ख़ुद ही ले रहे हैं। जिससे तंग आकर शिक्षा मंत्री के आप्त सचिव कृष्ण नंदन यादव के तरफ से पत्र में विभाग के अपर मुख्य सचिव पर कई आरोप लगाए गए थे. जैसे कि सैलरी कट, निलंबन, ड्रेस कोड जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर कुछ लोग के तरफ से मीडिया और राजनेताओं का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की जा रही है। जिसमें आगे कहा गया था कि इनके वज़ह से शिक्षा विभाग की नकारात्मक छवि बन रही है। अपर मुख्य सचिव के तरफ से अधिकारियों को उसके पद के हिसाब से काम करने नहीं दिया जा रहा है। विभागीय आदेश मंत्री तक पहुँचने से पहले मीडिया तक पहुँच जा रही है। जिनके बाद कई बार कैबिनेट की बैठक सिर्फ इसी विवाद के वज़ह से बुलाई गई थी। पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के हस्तक्षेप के बाद थोड़ा मामला ठंडा हुआ था। इस मामले में जदयू पार्टी पूरी तरह से अपर मुख्य सचिव केके पाठक के साथ थी। जिनका मानना था कि वो अच्छा काम कर रहे हैं। जबकि आरजेडी पार्टी मंत्री जी के साथ थी। जिनके तरफ से कहा जा रहा था कि केके पाठक बेलगाम अधिकारी हैं इनपर नकेल कसने की ज़रुरत है। रस्साकशी के बीच कई बार तो लगा एक अधिकारी के विरोध और बचाव के चक्कर में दोनों पार्टियों के बीच अब गठबंधन तक ख़त्म हो जायेगी।
समाज कल्याण मंत्री मदन सहनी नीतीश कुमार के जदयू पार्टी से ही हैं। जिसके वज़ह से मामला ज्यादा तूल नहीं पकड़ा था। जबकि मंत्री जी और अपर मुख्य सचिव के बीच विवाद करीब दो महीने से चल रही है। लेकिन इनका पता तब चला जब पटना के आसरा गृह में फूड प्वाजनिंग से तीन लड़कियों के मौत हो जाती है, जब इस घटना के बारे में मंत्री मदन सहनी से पूछा जाता है तो उनका जवाब आता है कि विभाग में अभी कोई काम नहीं हो रहा है। अपर मुख्य सचिव उनकी नहीं सुनते हैं, इसलिए उन्होंने दो महीने से पटना रहना छोड़ दिया है। अभी वो अपने घर दरभंगा रह रहे हैं। आसरा गृह में फूड प्वाजनिंग से तीन लड़कियों के मौत के बारे उन्होंने आगे कहा कि इनकी भी जानकारी हमें विभाग के तरफ से नहीं दी गई है। इनको भी हमने मीडिया के जरिए सुना है। जब विभाग के अधिकारी हमारी सुनेंगे ही नहीं तो काम किया ही होगा।
इनसे कुछ दिन पहले ही एक वीडियो वायरल था. जिसमें आरजेडी के एमपी सुधाकर सिंह से एक थानेदार कॉल पर उनके जैसे एमपी और एमएलए को जेब में रखने की बात कर रहा था। ऐसा भी नहीं है सुधाकर सिंह आरजेडी के सांसद हैं तो दरोगा साहब उनको हड़का रहे थे। बल्कि छोटे अधिकारी भी आजकल बिहार में एनडीए सरकार में शामिल दलों के मंत्री, एमपी और एमएलए को पहचानने से ही सीधे इंकार चले जाते हैं। आसान से भाषाओं में कहें तो आजकल अधिकारी बिहार में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में से से किसी की भी नहीं सुनते हैं। हालिया दिनों पहले ही दो वीडियो वायरल हुए थे. जिनमें केंद्रीय मंत्री चिराग़ पासवान के जीजा सांसद अरुण भारती को प्रखंड स्तर के अधिकारी ना सिर्फ पहचानने से इंकार जा रहे थे बल्कि उनका कॉल भी कट कर दे रहे थे।इनसे साफ है कि बिहार में अफसरशाही अपने चरम सीमा पर है। जिनपर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी का कोई कंट्रोल नहीं रह गया है। जिनसे नुक़सान सिर्फ आम जनमानस का है। क्योंकि बेलगाम अफसरशाही के शह पर कभी भी बेहतर जनकल्याणकारी राज्य की नींव नहीं रखी जा सकती है। इसलिए बेलगाम अफसरशाही पर लगाम कसने की सख्त जरूरत है।