पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया की राष्ट्रीय कार्यकारिणी परिषद (एनईसी) द्वारा पारित प्रस्ताव में वाराणसी जिला न्यायालय के उस आदेश को धार्मिक अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों पर संघ परिवार के हमलों को और बढ़ावा देने वाला बताया गया है, जिसमें अदालत ने पुरातत्व विभाग (एएसआई) को ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे करने के लिए कहा है। अदालत के इस आदेश में बाबरी मस्जिद मालिकाना हक के मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के सिद्धांत को भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया है, जिसमें पांच सदस्यीय पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि एएसआई द्वारा पुरातत्व की जाँच को किसी भी मालिकाना हक के मामले में कानून का आधार नहीं बनाया जा सकता।अदालत का आदेश धार्मिक स्थल (विशेष प्रावधान) कानून, 1991 के भी खिलाफ है, जिसमें 15 अगस्त 1992 को जो भी धार्मिक स्थल जिस हालत में है, उसकी उसी हालत को बरकरार रखने और उसकी सुरक्षा करने की बात की गई है। इस कानून को अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के 2019 के फैसले में भी दोहराया गया है। यह भी एक खुली हकीकत है कि मंदिर के दावेदारों के द्वारा वाराणसी जिला न्यायालय में दी गई याचिका के खिलाफ दायर की गई अपीलें अभी इलाहाबाद हाईकोर्ट में विचाराधीन हैं। इन तथ्यों के मद्देनज़र, पॉपुलर फ्रंट ने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से इस आदेश को खारिज करने की अपील की है, जो कि कानून और अदालत दोनों का उल्लंघन करता है।इस फैसले को मौजूदा रुझानों के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिए, जिनमें मुस्लिम धार्मिक स्थलों और पूजा-पाठ के खिलाफ संघ परिवार का हिंसक व विभाजनकारी एजेंडा शामिल है। ऐसा लगता है कि ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़े अदालत के हालिया घटनाक्रम बाबरी मस्जिद के साथ संघ परिवार की कोशिशों की हूबहू नकल हैं, क्योंकि वहाँ भी हिंदुत्व कैंप ने सबसे पहले विवादित ज़मीन पर पुरातत्व विभाग के सर्वे का न्यायिक आदेश प्राप्त किया था।इस संदर्भ में, अदालत की ओर से एएसआई टीम में अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोगों की नियुक्ति को इस घिनौनी हरकत में थोड़ा भरोसा पैदा करने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए, जिससे सिर्फ और सिर्फ आरएसएस के एजेंडे को बढ़ावा मिलता है। यह एक दुख भरी हकीकत है कि ध्वस्त बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर राम मंदिर के निर्माण की अनुमति देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कई तरीकों से हिंदुत्व ताकतों को हौसला देने का काम किया है कि वे काशी और मथुरा जैसी दूसरी मुस्लिम इबादतगाहों पर कब्जे के लिए आक्रामक तरीके से अपने अभियान को आगे बढ़ाएं। संघ परिवार के पास तोड़ी जाने वाली ऐसी कई मस्जिदों की लिस्ट होने पर न्यायपालिका का पक्षपात सेक्युलर भारत के लिए भयानक खतरे पेश कर रहा है, जिन मस्जिदों के बारे में संघ परिवार का यह दावा है कि उनके नीचे प्राचीन मंदिरों के ढांचे मौजूद हैं।पॉपुलर फ्रंट का यह मानना है कि बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण देश में सेक्युलरिज्म की बहाली की ओर पहला कदम है। इंसाफ की बहाली के इस लंबे संघर्ष में आगे आगे रहने के नाते, हम यह प्रतिज्ञा करते हैं कि अब किसी और ‘‘बाबरी का विध्वंस’’ नहीं होने देंगे।पॉपुलर फ्रंट सर्वोच्च न्यायालय से अपील करता है कि वह तत्काल हस्तक्षेप करते हुए देश के अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आज़ादी और उनके धार्मिक स्थलों पर जारी इन हिंदुत्व हमलों और कार्यवाहियों पर रोक लगाए। अदालत का यह फैसला बहुसंख्यक समुदाय के विभिन्न वर्गों और राजनीतिक दलों का इम्तेहान होगा कि वे वाराणसी जिला न्यायालय के इस हस्तक्षेप के कारण आए सामाजिक व राजनीतिक संकट पर किस तरह प्रतिक्रिया जताते हैं। हम मुस्लिम समाज और उसके नेताओं से अपील करते हैं कि वे संघ परिवार के इन शैतानी मंसूबों के मुकाबले में मजबूती से खड़े हों और उन पर प्रश्न उठाएं।एक अन्य प्रस्ताव में एनईसी ने राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद (एनसीपीयूएल) की ओर से आरएसएस चीफ मोहन भागवत की पुस्तक के उर्दू अनुवाद के प्रकाशन की कड़े शब्दों में निंदा की है। यह बड़ी गिरी हुई बात है कि एक सरकारी संस्थान का उपयोग एक फासीवादी संगठन के प्रमुख के लेक्चरों और भाषणों को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है। यह पुस्तक उर्दू भाषा में इसलिए प्रकाशित की जा रही है ताकि यह मुसलमानों के बीच में ज़्यादा से ज़्यादा पहुंचे, जिसमें ऐसे ज़हरीले विचार हैं कि हर भारतीय को खुद को हिंदू समझना चाहिए और देश के निर्माण के लिए उनको ‘‘आरएसएस की शाखाओं’’ से जुड़ना चाहिए।हमारी मांग है कि सरकारी संस्थान इस तरह की विभाजनकारी कार्यवाहियों से दूर रहें, जिनसे हिंदुत्व विचारधारा को बढ़ावा मिलता है और मुस्लिम समाज मौजूदा हिंदुत्व शासन के इन तानाशाही रुझानों का बॉयकॉट करते हुए इनके विरोध में बाहर निकले।