जनसुराज के दावों व उनकी राजनीति और मुसलमानों के बीच उनके विस्तार से जुड़े चंद महत्वपूर्ण प्रश्न

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अभय कुमार
स्वतंत्र पत्रकार

आजकल मेरे कुछ मुस्लिम दोस्त, जो कल तक सामाजिक न्याय की पार्टियों के बड़े समर्थक थे, राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की क़यादत वाली ‘जनसुराज’ अभियान के समर्थन में ‘सोशल मीडिया’ पर ‘पोस्ट’ लिख रहे हैं। उनमें से कुछ अन्य जनसुराज अभियान की पैदल यात्रा में भी शामिल हो चुके हैं और उनको इस दो साल पहले बने इस संगठन में बिहार का भविष्य दिख रहा है। क्या यह सब इस बात का सूचक है कि प्रशांत किशोर को आगामी विधान सभा चुनाव में मुसलमानों का बड़ा समर्थन मिलने जा रहा है?

हालांकि जनसुराज के मुस्लिम समर्थकों का दावा है कि प्रशांत किशोर से अल्पसंख्यक समाज के लोग बड़ी तेज़ी से जुड़ रहे हैं, क्योंकि इस पार्टी में सबके लिए जगह है। राजधानी पटना के निवासी और पेशे से फ़ैशन डिज़ाइनर मेरे एक मुस्लिम दोस्त ने मुझे बताया कि जो भी बिहार के विकास को लेकर फ़िक्रमंद है और बिहार को आगे लाना चाहता है, उसका जनसुराज पार्टी में स्वागत है। फ़ैशन डिज़ाइनर साहेब एक साल से जनसुराज से जुड़े हुए हैं।
जनसुराज अभियान की सरगर्मियों पर नज़र डालने पर यह ज्ञात हो जाता है कि यह राजनीतिक समूह ‘बिहारी पहचान’ पर लोगों को गोलबंद करने की कोशिश कर रहा है। ख़ासकर विकास का सवाल खूब उठाया जा रहा है। जनसुराज के समर्थक आपको बताएंगे कि बिहार विकास नहीं कर रहा है। यह राज्य अपराध, भ्रष्टाचार और ग़रीबी के दलदल में फंसा हुआ है। समर्थकों को इस बात का दुख है कि यहां के नौजवान दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर हैं।

यही बात जनसुराज के कुछ मुस्लिम समर्थकों ने भी मुझे बताई। दिलचस्प बात यह है कि ‘आइडेंटिटी’ की वजह से शोषित जनसुराज के मुस्लिम समर्थक जाति, वर्ग, लिंग और धर्म के आधार पर हो रहे भेदभाव पर बात करने के लिए ज़्यादा तैयार नहीं हैं। उनको लगता है कि इन सब पर चर्चा करना वक़्त की बर्बादी है। उनके लिए वक़्त का सही उपयोग सिर्फ़ विकास करना है। बार-बार वे एक ही तरह की बात को दोहरा रहे हैं कि पिछली सरकारों ने विकास को नज़रअंदाज़ किया और कल-कारख़ानों को चालू कराने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखलाई। उनको इससे ज़्यादा मतलब नहीं है कि नवउदारवाद पर आर्थिक नीति क्या है। किस तरह राज्यों को आर्थिक क्षेत्रों से पीछे हटने के लिए ज़ोर डाला जा रहा है और मार्केट के हवाले देश के संसाधनों को कौड़ी के भाव किया जा रहा है। समर्थकों की नज़रों में भ्रष्टाचार और ‘जातिवाद’ बिहार के पतन का मुख्य कारण है।

इन आलोचनाओं के अलावा, जनसुराज अभियान के मुस्लिम समर्थकों का सीधा निशाना लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव पर है। ख़ुद प्रशांत किशोर बार-बार तेजस्वी की “योग्यता” पर सवाल उठाते रहे हैं, हालांकि उन्होंने कभी भाजपा के नेताओं की ‘मार्कशीट’ की जांच-पड़ताल करने की हिम्मत नहीं दिखाई और न ही उन्होंने इस बात पर प्रश्न खड़ा किया कि सत्ताधारी बीजेपी और आर.एस.एस. का शीर्ष नेतृत्व का चयन किस ‘मेरिट’ और किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करके किया जाता है। जब मैंने पूछा कि जब स्मृति ईरानी शिक्षा मंत्री बनी तब भी प्रशांत किशोर ने उनकी योग्यता पर सवाल नहीं उठाया और न ही उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्री के ऊपर उठे विवाद पर ही अपना पक्ष रखा, तो जवाब में पटना के फ़ैशन डिज़ाइनर दोस्त ने कहा कि यह सब मामला बिहार से संबंधित नहीं है और जनसुराज सिर्फ़ बिहार पर नज़र जमाये हुए है।

मगर तेजस्वी की डिग्री पर सवाल उठाने का मौक़ा जनसुराज हाथ से जाने नहीं देता है। कुछ महीने पहले ‘पॉलिटिकल स्ट्रैटेजिस्ट’ पी.के. ने तेजस्वी को “नौंवी फेल आदमी” कहते हुए कहा कि “तेजस्वी यादव की क्या पहचान है? वे नौंवी फेल आदमी हैं। वह क्रिकेट खेलने गए तो वहां पानी ढोते थे। लालू यादव के लड़के हैं, इसलिए सब लोग जानते हैं। लालू के लड़के हैं, इसलिए राजद के नेता भी हैं।”

इन घटनाओं को देखकर किस के मन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या वाक़ई जनसुराज अभियान ने राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के मुख्य सामाजिक आधार ‘माई’ (मुस्लिम और यादव) में सेंध लगा लिया है और मुसलमानों के एक समूह को तोड़ लिया है? यह सवाल भी जवाब तलब है कि क्या बिहार के मुसलमान वोटर इस बार जनसुराज पर भरोसा करने जा रहे हैं? या फिर जो कुछ हमें दिखाया जा रहा है, वह सब ‘जनसुराज अभियान’ की पी.आर. टीम का कमाल है?
आप सब जानते हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव बड़ी तेज़ी से क़रीब आ रहा है। तमाम पार्टियां चुनाव की तैयारी को लेकर काम में जुटने लगी हैं। इस चुनाव में पहली बार प्रशांत किशोर अपनी क़िस्मत आज़माने जा रहे हैं। हालांकि जनसुराज अभियान अभी तक न तो पार्टी बन पाई है और न ही उसकी कोई लिखित विचारधारा ही सामने आई है। मगर बताया यह जा रहा है कि 2 अक्तूबर अर्थात् गांधी जयंती के मौक़े पर जनसुराज अभियान एक पार्टी की शक्ल ले लेगी। यह भी नहीं मालूम कि उस पार्टी क्या नाम होगा। उसी दिन पार्टी के ‘संविधान’ की भी घोषणा होगी। मगर जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उसको देखकर नहीं लगता कि इसके पार्टी और संविधान का कोई संबंध ‘लेफ्ट’ या सामाजिक न्याय की विचारधारा के साथ है।

इस बात का ज़्यादा डर है कि यह पार्टी ख़ुद को “आइडियोलॉजी-विहीन” पार्टी के तौर पर पेश करे। ऐसा करने से शीर्ष नेताओं के पास कदम-कदम पर समझौता करने का ‘स्कोप’ ज़्यादा होता है और वे बड़ी आसानी से कठिन प्रश्नों को दरकिनार कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, जब मैंने पटना के मुस्लिम साथी से पूछा कि आपकी पार्टी जातिगत भेदभाव को कैसे दूर करेगी, तो उनका जवाब था कि ‘यात्रा के साथ जुड़िये, काम कीजिए, सब कुछ हल हो जाएगा’।

हालांकि जनसुराज की तरफ़ से यहां तक दावा किया जा रहा है कि यह पार्टी अगले चुनाव के बाद बिहार में सरकार बनाने जा रही है। कुछ महीनों पहले ‘इंडिया टुडे’ से बात करते हुए, ख़ुद जनसुराज यात्रा के संयोजक प्रशांत किशोर ने कहा कि ‘लिखकर दे सकता हूं, हम 2025 में बिहार में सरकार बना रहे हैं’। क्या इतनी बड़ी जीत का दावा करने से पहले जनसुराज अभियान की तरफ़ से ‘होमवर्क’ हो चुका है? यह फिर बीजेपी के ‘400 पार’ की तरह यह भी किसी बड़े ‘प्रोपेगंडा’ का हिस्सा है?
चुनाव तो ज़मीन पर काम करने वाली पार्टी ही जीतती है। क्या जनसुराज एक ज़मीनी ताक़त के रूप में उभर चुका है? हालांकि जनसुराज अभियान ने यह दावा किया है कि उसने बिहार में अबतक 629 दिनों की पदयात्रा मुकम्मल की है। इस दौरान, 2637 गांवों, 225 ब्लॉकों और 1282 पंचायतों का दौरा किया जा चुका है। अबतक, कुल 6,00,022 सदस्य भी बनाए जा चुके हैं। मगर, इन आंकड़ों में कितनी सच्चाई है, यह यक़ीन के साथ नहीं कहा जा सकता है। मगर जिस पार्टी का अभी गठन भी नहीं हुआ हो, जिस पार्टी के पीछे कोई सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन भी नहीं हो, उसकी तरफ़ से सरकार बनाने का दावा करना किसी भी निष्पक्ष चुनावी विश्लेषक को आश्चर्य में डाल सकता है।
यह इसलिए कि चुनाव की रणनीति ए.सी. कमरे में बैठ कर की जा सकती है। जनता का विश्वास जीतने के लिए वर्षों काम करना पड़ता है, तब ही जाके किसी पार्टी को जानता का जनाधार मिलता है। ऐतिहासिक तौर पर बिहार राजनीतिक रूप से काफ़ी सक्रिय रहा है और यहाँ पर सामाजिक न्याय की ताक़तें काफ़ी मज़बूत रही हैं। इस पृष्ठभूमि में किसी ऐसी पार्टी, जो विचारधारा को नकार रही हो, का चुनाव जीतना आसान नहीं दिख रहा है। मगर प्रशांत किशोर को यक़ीन है कि वह सवर्णों के साथ अल्पसंख्यक मुसलमानों को अपनी तरफ़ लाने में कामयाब हो गये तो उनकी राह आसान हो जाएगी।

हालांकि प्रशांत किशोर का संबंध सवर्ण समाज से है, जो बिहार के तमाम संसाधनों पर क़ाबिज़ है। उनका जन्म रोहतास ज़िले के कोनार पंचायत के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और उनका कैरियर एक ‘स्ट्रैटिजिस्ट’ और ‘टेक्नोक्रेट’ का रहा है। आसान लफ़्ज़ों में कहें तो प्रशांत किशोर का काम करने का तरीक़ा किसी कंपनी के सी.ई.ओ. की तरह होता है। वह चाहते हैं कि उन्हें कम से कम लागत में ज़्यादा से ज़्यादा प्रॉफिट मिले। उनका इस बात से ज़्यादा सरोकार नहीं है कि समाज में मूलभूत परिवर्तन हो। समाज में बदलाव की बात करने वाले उनको पसंद नहीं हैं। उनके काम-काज को देखकर ऐसा लगता है कि सत्ता का इस्तेमाल कर अपने लिए जगह बनाना है।

उनकी पार्टी में रीढ़ की हड्डी सवर्ण जातियां हैं। ख़ासकर, ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ जातियों के पढ़े-लिखे और बेरोज़गार नौजवानों को अपनी पार्टी का ‘कैडर’ और “लीडर” बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। प्रशांत किशोर ने कभी भी नवउदारवादी आर्थिक नीति पर प्रश्न नहीं उठाया और न ही ‘क्रॉनी कैपिटलिज्म’ ही उनके लिए कोई समस्या है। उनको सबसे ज़्यादा मज़ा बिहार की सामाजिक न्याय की पिछली सरकारों को कोसने में आता है। अर्थात वह छुपे तरीक़े से सवर्णों की “बदहाली” के लिए पिछड़ों के उभार को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। मुसलमानों को साथ रखने के पीछे उनकी बड़ी मंशा यह है कि उनकी राजनीति को सेक्युलर छवि हासिल होने में मदद मिलेगी।

यही वजह है कि जनसुराज अभियान के साथ जुड़ने वालों में एक बड़ी तादाद सवर्ण नौजवानों की है, जिनमें मुस्लिम अशरफ़ जातियाँ भी हैं। वे मुस्लिम इलाकों का खूब दौरा कर रहे हैं। मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए काफी ज़ोर लगा रहे हैं। ख़ासकर उनकी कोशिश है कि जो मुस्लिम नवजवान ‘प्रोफेशनल कोर्सेज’ की पढ़ाई किए हैं, उन्हें अपनी तरफ खींचा जाए। ‘इंजीनियरिंग’, ‘मैनेजमेंट’, ‘फैशन डिज़ाइनिंग’, ‘होटल मैनेजमेंट’, ‘सोशल वर्क’, ‘मीडिया’, ‘मेडिकल’ के मुस्लिम नवजवानों पर उनकी ख़ास नज़र है। ऐसा ही सवर्ण प्रोफेशनल नवजवानों की टोली ने एक ज़माने में नरेंद्र मोदी का खुल कर समर्थन किया था।

प्रशांत किशोर को टेक्नोक्रेट मानसिकता का कार्यकर्ता और लीडर चाहिए। इसकी वजह यह है कि प्रोफेशनल कोर्सेज की पढ़ाई में ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को अक्सर ख़ारिज कर दिया जाता है। प्रशांत किशोर भले ही इस बात को क़बूल न करें, मगर उनको उनकी जाति का बड़ा फ़ायदा मिलता है। सवर्ण मीडिया सवर्ण नेता को आगे बढ़ाने में काफ़ी ज़ोर लगाता है। कैमरा के सामने प्रशांत अच्छी हिंदी और अंग्रेजी बोलना जानते हैं। यह सब उनकी खूबी है। मगर उनको लगता है कि इस खूबी की वजह से वह बिहार की राजनीति पर क़ाबिज़ हो जाएंगे। सवर्ण समाज का समर्थन को लेकर उनको ज़्यादा चिंता नहीं है। उनकी बड़ी चिंता यह है कि कैसे बहुजनों को जनसुराज में लाया जाए।
बिहार में दलितों और पिछड़ों को क़रीब लाने में उनको ज़्यादा ज़ोर लगाना पड़ रहा है क्योंकि उनके ख़ुद के समाज से लीडर मौजूद हैं। इसलिए उनको लग रहा है कि लीडरशिप विहीन मुस्लिम समाज को थोड़ी कोशिश करने पर पास लाया जा सकता है। इस लिये वह खुल कर सांप्रदायिक राजनीति का समर्थन करने से बचते हैं। मगर उनकी बड़ी कोशिश है कि किसी तरह से लालू और तेजस्वी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल (राजद) से मुसलमानों को दूर किया जाए और जनसुराज की तरफ़ लाया जाए। उन्हें बख़ूबी मालूम है कि मुसलमानों को राजद से तोड़ लेने पर, यह मुंह के बल गिर पड़ेगी।
मगर मुस्लिम इलाक़ों में जाने पर प्रशांत किशोर मूलभूत समस्याओं पर बात करने से कतरा रहे हैं। उन्हें भी मालूम है कि अगर ऐसा उन्होंने किया तो उनका सवर्ण सामाजिक आधार दूर चला जाएगा। इसलिए वह मुसलमानों को अपनी तरफ़ लाने के लिये त्वरित मसले को उठा रहे हैं। समाज में जाति, वर्ग, लिंग और धर्म के आधार पर रहे भेदभाव पर पर्दा उठाने की हिम्मत नहीं कर रहे हैं। सरकार की आर्थिक नीति पर भी वह ख़ामोश हैं। सरकार ‘सोशल सेक्टर’ और ‘वेलफेयर’ पर क्या खर्च कर रही है, इस पर भी वह बात नहीं करना चाहते हैं।

मुसलमानों के लिए बंद हो रहे स्कॉलरशिप पर भी उनकी चुप्पी है। अपनी सारी बातों को वह व्यक्ति की निजी कोशिश तक ही सीमित रखना चाहते हैं। उनके नज़दीक अगर कोई कामयाब है तो उसे उसकी ख़ुद की मेहनत और उसके ‘स्किल’ की वजह से है। और कोई नाकाम तो वह मेहनत नहीं कर रहा है। अर्थात् सामाजिक समस्याओं को वह एक व्यक्ति तक ला के सीमित कर दे रहे हैं।
कुछ इसी अन्दाज़ में जनसुराज के कार्यकर्ता और लीडर भी अपनी बातों को रख रहे हैं। मिसाल के तौर पर, जब मैंने अपने मुस्लिम साथी से पूछा कि बिहार में पलायन को लेकर जनसुराज अभियान काफी सवाल उठा रहा है, इस समस्या का हल आपका संगठन कैसे करेगा, तो उनका जवाब था, “जब बैंक ज़्यादा से ज़्यादा क़र्ज़ बिहार के युवाओं को देने लगेंगे तो उद्योग बिहार में ही लगने लगेंगे और फिर पलायन रुक जायेगा।”

गौर कीजिए, यहाँ भी पलायन जैसी बड़ी सामाजिक समस्या का सरलीकरण कर दिया गया। जनसुराज के मुस्लिम समर्थक के पास ‘बाज़ार’, ‘क़र्ज़’, और ‘स्किल डेवलपमेंट’ के अलावा और कुछ ज़्यादा कहने को नहीं है। जनसुराज के कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग कुछ ऐसी हुई है कि उनके मुंह पर सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं से दूरी की बातें आती भी नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जीने के अधिकार को मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया है। मगर जब ‘टेक्नोक्रेट’ मानसिकता पालिसी बनाती है तो उसमें सरकार, संविधान, और सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी के सवाल गायब रहते हैं। इस तरह की राजनीति समाज में उभरी हुई राजनीतिक समझदारी को कुंद करने का काम करती है और यह सब समाज में यथास्थिति बनाए रखने के लिए सहायक होता है।

जनसुराज की पूरी कोशिश है कि मुस्लिम नवजवानों में जो असंतोष सामाजिक न्याय की पार्टियों के साथ है, उसका इस्तेमाल ख़ुद के लाभ के लिए किया जाए। मिसाल के तौर पर, इस बार राजद ने सिर्फ़ 2 ही मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, जबकि पिछले लोकसभा में उन्हें 5 सीटें दी गई थीं। उसी तरह कई वर्षों से राज्यसभा में राजद ने ब्राह्मण, बनिया और यादव को उम्मीदवार बनाया है। यह सब देखकर अल्पसंख्यक वर्ग का एक समूह ख़ुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है। मुस्लिम समाज से जुड़े हुए बहुत सारे लोग यह कहते हैं कि सामाजिक न्याय के नेतागण उनसे वोट तो लेने में आगे आगे रहते हैं, मगर उनका काम करने में कई बार पीछे हो जाते हैं। प्रशांत किशोर की पूरी कोशिश है कि मुस्लिम नौजवानों में जो कुछ भी तेजस्वी और राजद को लेकर नाराज़ हैं, उसका इस्तेमाल वह अपनी पार्टी के सामाजिक आधार को बढ़ाने में करें।
मगर जनसुराज के मुस्लिम समर्थकों से मेरी यही अपील है कि उनको यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि प्रशांत किशोर की राजनीति नकारात्मक ज़्यादा है। यह इस लिए कि वह दूसरी पार्टियों की कमियों को ज़्यादा गिना रहे हैं और यह नहीं बता रहे हैं कि वह अल्पसंख्यक समुदाय के लिए क्या करना चाहते हैं। क्या कोई मुझे यह बतलाने की ज़हमत करेगा कि प्रशांत किशोर या जनसुराज अभियान ने मुसलमानों के सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक समस्याओं के बारे में क्या पोजीशन लिया है? क्या यह सच नहीं है कि या तो प्रशांत किशोर ख़ामोश रहे हैं या उनकी बातें अक्सर गोलमोल होती हैं। वह पोजीशन लेने से हमेशा बचते हैं।
पिछले दस सालों से जब से प्रशांत किशोर भारत की राजनीति में सक्रिय हुए हैं, क्या कभी भी उन्होंने किसी भी मुस्लिम सवाल पर खुलकर बोला है? किसी ने उनको सी.ए.ए. और एन.आर.सी. के खिलाफ़ लड़ते हुए देखा है? क्या उन्होंने दिल्ली दंगों में मारे जाने वाले लोगों के लिए कोई राहत का काम किया है? आज भी हज़ारों की तादाद में मुस्लिम नवजवान जेल में बंद हैं, क्या कभी उनकी रिहाई को लेकर वह संजीदा रहे हैं? मुस्लिमों को यूनिवर्सिटी और सरकारी नौकरियों में लाने के लिए उनके पास कोई ‘प्लान’ है? दलित मुसलमानों को एस.सी. दर्जा दिलवाने के लिए क्या उनकी पार्टी समर्थन करेगी? इन प्रश्नों का जवाब प्रशांत किशोर को देना चाहिए।
जहां मुसलमानों के मुद्दों पर बोलने से वह बचते हैं, वहीं उन्होंने डंके की चोट पर यह स्वीकार किया है कि जिस जीवित राजनेता की वह सबसे अधिक प्रशंसा करते हैं, वह कोई और नहीं बल्कि लालकृष्ण आडवाणी हैं। आज से दो साल पहले ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए प्रशांत किशोर ने आडवाणी की सराहना करते हुए कहा कि “भाजपा के संगठन और निर्माण के पीछे उनकी मेहनत है। उनकी वजह से भाजपा एक अखिल भारतीय पार्टी बन पाई।” यह बात कहने से पहले प्रशांत किशोर ने इस बात पर भी बोलना चाहिए कि आडवाणी ने किस राह पर चलकर बीजेपी को सत्ता दिलाई है? क्या वह इस बात से इंकार करेंगे कि राम मंदिर आंदोलन के बहाने आडवाणी ने देश भर में सांप्रदायिक राजनीति को हवा दी थी? क्या प्रशांत इसे झूठ क़रार देंगे कि आडवाणी की सांप्रदायिक राजनीति ने सिर्फ़ बाबरी मस्जिद को तहस-नहस नहीं किया, बल्कि इसकी जद में हज़ारों मासूमों की जानें गईं। यही कम्युनल पॉलिटिक्स ने देश को दंगे की आग में झोंक दिया।

विरोधाभास का आलम यह है कि प्रशांत किशोर अपनी पार्टी के बैनर पर गांधीजी की तस्वीर लगाए हुए हैं। वहीं उनको आडवाणी भी बहुत पसंद हैं। एक तरफ़ अहिंसा का पुजारी और हिंदू-मुस्लिम एकता का एंबेसडर और दूसरी तरफ़ सांप्रदायिक राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा। प्रशांत किशोर जैसा व्यक्ति ही इन दोनों को साथ लेकर चल सकता है। मुझे अब इस बात पर भी शक होने लगा है कि प्रशांत गांधीवादी हैं। यह बात समझ से परे है कि जहां गांधी ने पूरी ज़िंदगी साध्य और साधन के बीच में तालमेल बैठाने की बात की, वहीं उनको आडवाणी के साध्य और साधन में कोई तजाद नहीं दिखता है। गांधी यह समझते थे कि गलत रास्ते पर चलकर कोई भी अच्छी मंज़िल हासिल नहीं कर सकता। अगर ऐसी बात है तो जिस आडवाणी ने सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लिया, उस राजनीति का फल कैसे प्रशांत किशोर को मीठा लग सकता है?

जनसुराज के मुस्लिम समर्थकों का ध्यान हम इस तरफ़ आकर्षित करना चाहते हैं कि जिस आडवाणी की तारीफ़ करते प्रशांत किशोर थक नहीं रहे हैं, उसी आडवाणी को बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने गिरफ्तार करवाया और राज्य को सांप्रदायिक आग में जाने से बचाया। हालाँकि आडवाणी की गिरफ्तारी की बड़ी क़ीमत लालू को चुकानी पड़ी और केंद्र में जनता दल की सरकार गिर गई। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता दल की सरकार ने देशभर में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया था, जिसकी वजह से देश के बहुसंख्यक मुसलमानों को आज़ादी के बाद पहली बार ओबीसी आरक्षण मिला। ओबीसी आरक्षण मिलने के बाद पसमांदा मुसलमानों को सरकारी नौकरियाँ मिल सकीं। इसलिए जनसुराज के मुस्लिम समर्थकों को यह बात याद रखनी चाहिए कि कौन सी ताक़तें वर्षों से उनके साथ खड़ी रही हैं। क्या मुसलमानों का भला सामाजिक न्याय की ताक़तों से होगा या उस नेता से जो आडवाणी को अपना आदर्श मानता हो और जिसने दिन रात मेहनत करके नरेंद्र मोदी के पक्ष में 2014 चुनाव में हवा बनाई हो।

हालांकि प्रशांत किशोर मुस्लिम वोटरों को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश कर रहे हैं, मगर उनकी राजनीति की बहुत सारी सीमाएं भी हैं, जो उनके और वंचित मुस्लिम समाज के बीच दीवार का काम कर रही हैं। यह बात फिर से याद दिला दूं कि ‘टेक्नोक्रेट’ प्रशांत किशोर की राजनीति की सबसे बड़ी कमी यह है कि वे सामाजिक समस्याओं को इतिहास में नहीं देखते। न ही उनका दृष्टिकोण समाज में सदियों से चली आ रही सामाजिक, सांस्कृतिक, और आर्थिक गैर-बराबरी पर कभी जाता है। जातीय भेदभाव और आर्थिक विषमता को वे हमेशा नज़रअंदाज़ करते हैं।

समाज में 70 प्रतिशत से अधिक दलित क्यों भूमिहीन हैं? ऐसे सवाल में भी उनकी दिलचस्पी नहीं है। बिज़नेस और कारोबार से लेकर मीडिया तक और सिनेमा से लेकर यूनिवर्सिटी तक, सवर्ण जातियां क्यों हैं और बहुजनों का कौन हक़ मार रहा है, यह सारे प्रश्न भी प्रशांत किशोर के भाषणों में कहीं जगह नहीं पाते हैं। हर रोज़ दलित पर जातीय हमले क्यों होते हैं, इन सवालों को भी प्रशांत किशोर नहीं उठाते। देशभर में आदिवासियों की ज़मीनें क्यों लूटी जा रही हैं और जंगलों को क्यों तबाह किया जा रहा है, इस पर भी प्रशांत किशोर ख़ामोश रहते हैं।

आज मुस्लिम राजनीतिक तौर पर “अछूत” बन गया है, इसको दूर करने के उपाय भी प्रशांत किशोर ने कभी नहीं दिए हैं। मुसलमानों को उनकी आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व देने की बात उनके मुंह से कभी नहीं निकलती। कॉलेज, यूनिवर्सिटी, और सिविल सर्विस में मुसलमानों की बेदख़ली पर भी वे अक्सर चुप रहते हैं। हज़ारों की तादाद में मुस्लिम नौजवान देशद्रोह और आतंकवाद के बहाने जेल में क़ैद हैं, उनके लिए प्रशांत किशोर कभी आंसू का एक कतरा भी नहीं बहाते। जब तक प्रशांत किशोर इन सवालों से बचते रहेंगे, तब तक वे मुस्लिम समाज का विश्वास हासिल नहीं कर पाएँगे।

(डॉ. अभय कुमार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। उनकी पी.एच.डी. जेएनयू के इतिहास विभाग से मुस्लिम पर्सनल लॉ के विषय पर है)

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