राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ओर से स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले 14 अगस्त को अखंड भारत संकल्प दिवस मनाया जाएगा. इस दिन देश भर में संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की ओर से आयोजित कार्यक्रमों में देश की अखंडता का संकल्प लिया जाएगा.संघ हर साल ऐसे आयोजन करता है. इस दिन देश भर में लगने वाली शाखाओं में जहां कार्यकर्ता अखंड भारत का संकल्प लेते हैं. वहीं विभिन्न इकाइयों की ओर से आयोजित कार्यक्रम में विशेषज्ञ वक्ताओं को बुलाकर अखंड भारत के सपने को साकार करने पर चर्चा होती है. संघ का ये प्रयास काबिल ए तारीफ है कि भारत के गौरवशाली इतिहास को दोहराने के लिए इसे भौगोलिक रुप से एकीकृत किया जाए. लेकिन भारत के विभाजन में किसकी भुमिका थी ये भी स्पष्ट हो जाना बहुत ज़रूरी है.ये सच है कि मुस्लिम लीग ने अलग देश की माँग की थी और उनकी ये माँग पूरी हो गई, यही वजह है कि विभाजन का पूरा दोष मुसलमानों पर डाल दिया गया, लेकिन ऐसा नहीं है सभी मुसलमान विभाजन के पक्ष में थे या केवल मुसलमान ही इसके लिए ज़िम्मेदार थे. मौलाना आज़ाद और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान विभाजन के सबसे बड़े विरोधी थे और उन्होंने इसके ख़िलाफ़ पुरज़ोर तरीक़े से आवाज़ उठाई थी.जिन्ना द्वारा 1939 में द्विराष्ट्र के सिद्धांत के प्रतिपादन के लगभग दो वर्ष पहले ही सावरकर हिन्दू महासभा के 1937 के अहमदाबाद में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में अध्यक्ष के तौर पर कहा, ”भारत में दो विरोधी राष्ट्र एक साथ बसते हैं, कई बचकाने राजनेता यह मानने की गंभीर भूल करते हैं कि भारत पहले से ही एक सद्भावनापूर्ण राष्ट्र बन चुका है या यही कि इस बात की महज इच्छा होना ही पर्याप्त है. हमारे यह सदिच्छा रखने वाले किन्तु अविचारी मित्र अपने स्वप्नों को ही यथार्थ मान लेते हैं. इस कारण वे सांप्रदायिक विवादों को लेकर व्यथित रहते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जिम्मेदार मानते हैं, किन्तु ठोस वस्तुस्थिति यह है कि कथित सांप्रदायिक प्रश्न हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय शत्रुता… की ही विरासत है… भारत को हम एक एकजुट और समरूप राष्ट्र के तौर पर समझ नहीं सकते, बल्कि इसके विपरीत उसमें मुख्यतः दो राष्ट्र बसे हैं: हिंदू और मुस्लिम.” .इससे पहले डॉक्टर बी एस मुंजे, जो हिंदू महासभा के नेता होने के साथ-साथ आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और इटली के तानाशाह मुसोलिनी के दोस्त थे, ने 1923 में अवध हिंदू महासभा के तीसरे अधिवेशन में कहा था किः ‘जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ों का, फ्रांस फ्रांसीसियों का तथा जर्मनी जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है. अगर हिंदू संगठित हो जाते हैं तो वे अंग्रेज़ों और उनके पिट्ठुओं, मुसलमानों को वश में कर सकते हैं। अब के बाद हिन्दू अपना संसार बनाएँगे और शुद्धि तथा संगठन द्वारा फले-फूलेंगे.’ इसके इलवा हिंदुत्ववादी विचारकों द्वारा प्रचारित दो-राष्ट्र की इस राजनीति को 1939 में प्रकाशित गोलवलकर की पुस्तक ‘वी, एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड’ से और बल मिला. गोलवलकर ने मुसलमानो और ईसाइयों को चेताते हुए कहा कि: ‘अगर वह ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें बाहरी लोगों की तरह रहना होगा, वे राष्ट्र द्वारा निर्धारित तमाम नियमों से बँधे रहेंगे. उन्हें कोई विशेष सुरक्षा प्रदान नहीं की जाएगी, न ही उनके कोई विशेष अधिकार होंगे। इन विदेशी तत्वों के सामने केवल दो रास्ते होंगे, या तो वे राष्ट्रीय नस्ल में अपने-आपको समाहित कर लें या जबतक यह राष्ट्रीय नस्ल चाहे तब तक वे उसकी दया पर निर्भर रहें अथवा राष्ट्रीय नस्ल के कल्याण के लिए देश छोड़ जाएँ. अल्पसंख्यक समस्या का यही एकमात्र उचित और तर्कपूर्ण हल है. इसी से राष्ट्र का जीवन स्वस्थ व विघ्न विहीन होगा. राज्य के भीतर राज्य बनाने जैसे विकसित किए जा रहे कैंसर से राष्ट्र को सुरक्षित रखने का केवल यही उपाय है. प्राचीन चतुर राष्ट्रों से मिली सीख के आधार पर यही एक दृष्टिकोण है जिसके अनुसार हिंदुस्थान में मौजूद विदेशी नस्लें अनिवार्य हिंदू संस्कृति व भाषा को अंगीकार कर लें, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीख लें तथा हिंदू वंश, संस्कृति अर्थात् हिंदू राष्ट्र का गौरव गान करें। वे अपने अलग अस्तित्व की इच्छा छोड़ दें और हिंदू नस्ल में शामिल हो जाएँ, या वे देश में रहें, संपूर्ण रूप से राष्ट्र के अधीन किसी वस्तु पर उनका दावा नहीं होगा, न ही वे किसी सुविधा के अधिकारी होंगे। उन्हें किसी मामले में प्राथमिकता नहीं दी जाएगी यहाँ तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं दिए जाएँगे.’डॉ. बीआर आंबेडकर दो-राष्ट्र सिद्धांत के बारे में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की विचारधारा समान मानते हुए लिखते हैं: ‘यह बात भले विचित्र लगे लेकिन एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर सावरकर व जिन्ना के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं. दोनों ही इसे स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं- एक मुसलिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र.’इसके इलावा हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने साझा सरकार भी चलाई. उपरोक्त बातों से ये स्पष्ट हो जाता है कि देश के विभाजन के विभाजन में और किसकी भुमिका थी. आरएसएस सावरकर और गोलवलकर के आदर्शों और सिद्धांतों को मानता है. ऐसे में देश की विभाजन में आरएसएस और हिन्दूमहासभा की भुमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे में आरएसएस का इस प्रकार से अखण्ड राष्ट्र के लिए कार्यक्रम करना उनके दोहरे चरित्र को दर्शाता है. अब चुंकी आरएसएस अखण्ड भारत के लिए कार्यक्रम कर रहा है तो उसे देश के विभाजन के लिए ज़िम्मेदार तत्वों के नाम खुलकर बताने चाहिए, साथ ही आरएसएस को अपने उन पूर्ववर्ती विचारकों पर अपना विचार स्पष्ट कर देना चाहिए जिन्होने दो-राष्ट्र के सिद्धांत पेश किए.(मुहम्मद फ़ैज़ान ने ये आर्टिकल कलाम रीसर्च फाउंडेशन के लिए लिखा है)