दुनिया की तारीख को जब हम किसी भी किताब में पढ़ने की कोशिश करते हैं, तो हमारे सामने कई ऐसे चेहरे, कई ऐसी पर्सनैलिटी आतीं हैं, जिन्होंने अपने देश के लिए, अपने लोगों के लिए या फिर अपने समाज के लिए आवाज़ें उठाई और हक़ के साथ रहते हुए ज़ुल्म के खिलाफ खड़े हुए. जिसकी गूँज दुनिया भर में सुनाई दी. लेकिन इस तरह के इंसान दुनिया भर में ऐसे ही मशहूर नहीं होते हैं, बल्कि इसके लिए इनको पूरी दुनिया से हट कर अपनी एक अलग छाप छोड़नी पड़ती है. कुछ ऐसा काम करना होता है, ऐसे हैरान कर देने वाला कारनामा करना पड़ता है. तब जाकर दुनिया ऐसे लोगों को जानती है और उनको और उनके जज़्बे को सलाम करती है. लेकिन कुछ नाम ऐसे भी होते है जो कभी सामने तो नहीं आ पाते हैं. लेकिन वो ऐसा कुछ करके ज़रूर जाते हैं जिसे याद किये बगैर तारीख मुकम्मल नहीं होती है और दुनिया की तारीख में ऐसे लोगों का नाम सुनहरे लफ्ज़ों में दर्ज किया जाता है.हमको आज 73 साल के उस महान योद्धा के बारे में जानना जरूरी है, जिसने नाजीवाद के खिलाफ 20 साल संघर्ष किया. गुरिल्ला वार किया. बड़ी ही बहादुरी से अपनी जनता के लिए लड़ते हुए शहीद हुआ. साम्राज्यवादी ताकतें जिनके पास आधुनिक हथियार, टैंक, तोप, प्रशिक्षित सेना थी लेकिन फिर भी इतिहास गवाह है कि ये सब होते हुए भी साम्राज्यवाद को पूरे विश्व मे सहस्त्र संघर्ष में आम जनता जो देशी हथियारों से लड़ रही थी, उनको मुँह की खानी पड़ी.अफ्रीका के मशहूर देश लीबिया में तो इस शख्स हीरो के रूप में देखा ही जाता है. साथ ही साथ दुनिया के अलग-अलग देशों में भी इस इंसान के बहादुरी के किससे सुनाएं जाते हैं. दुनिया जब भी किसी इंसान के बहादुरी के किस्से का जिक्र होगा तो उसमें एक नाम सरफेहरिस्त होगा इन्ही में से एक नाम है “उमर मुख़्तार” का ये नाम उस शख़्स का है, जिसने कलम से बंदूक तक का सफर तय किया और अपना लोहा मनवाया. जिसने साम्राज्यवाद के ज़ुल्म के खिलाफ, तानाशाही के खिलाफ तकरीबन 20 साल तक जंग की मशाल जलाये रखी. जब यूरोप के साम्राज्यवादी देशों ने एशिया और अफ्रीका के मुल्को को गुलाम बनाने के लिए अपनी आधुनिक सेनाये वहाँ भेजी तो उनकी इस लूट के खिलाफ साधारण से दिखने वाले आम इंसान, योद्धा के रूप में सामने आए, जिन्होंने अपने लोगो के सामने मजबूती से लड़ने की मिशाल पेश की. अन्याय के खिलाफ उनको एकजुट किया, वहीं साम्राज्यवादीयों के सामने वो चैलेंज पेश किया कि खुद साम्राज्यवादियों ने उनकी बहादुरी के सामने घुटने टेक दिए. लीबिया की तारीख में आज भी यह नाम “रेगिस्तान के शेर” के नाम से याद किया जाता है, और इनका इतिहास अपने आप में एक जोश और जज़्बा पैदा करता है.उमर मुख्तार का जन्म 20 अगस्त 1858 को लीबिया के एक ऐसे घराने में हुआ जो बहुत ज्यादा गरीब था. जब उमर 11 साल के थे तब उनके पिता जी का निधन हो गया था. जब वह हज के लिए गये हुए थे. लेकिन अपनी मौत से पहले ही उनकी पिता की ये इच्छा थी की उनके बेटे की जिंदगी इंसानियत की सेवा के लिए होगी. उमर के पिता के दोस्त हुसैन गरियानी को उमर की देख रेख का ज़िम्मा दिया गया था. उमर मुख्तार ने अपनी शुरुआत की पढ़ाई अपने इलाके के मदरसे से ही की थी, और इस तरह से उमर मुख्तार ना सिर्फ कुरान को मुकम्मल हिफ़्ज़ किया, बल्कि साथ ही साथ एक बहुत बड़े आलीमें दिन भी बन गए थे, और इनके इलाके में इनको एक मशहूर इस्लामिक स्कॉलर के तौर पर भी जाना जाता था. लेकिन यह वह दौर था जब लीबिया सल्तनत-ए-उस्मानिया के कब्ज़े में था और उस वक्त तक सल्तनत-ए-उस्मानिया भी बहुत कमजोर हो गया था.उमर मुख्तार ने अपना जीवन एक शिक्षक के तौर पर शुरू किया था और एक मदरसे में वो बच्चों को क़ुरान और अरबी पढ़ाया करते थे. 1895 ईसवी में वे सूडान चले गये उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध मेहदी सूडानी के आंदोलन में भाग लिया परंतु इस आंदोलन की विफलता के पश्चात वे दुबारा लीबिया लौट गये. संघर्ष से वापस लौट कर फिर एक शिक्षक के तौर पर कार्य करने लगे,और बच्चों को शिक्षा देने लगे।लेकिन शायद हालात को ये मंज़ूर नही था और इटली में तानाशाही सरकार का आरम्भ हुआ. इतिहास में साम्राज्यवाद जब अपने पैर मज़बूत कर रहा था, उसी समय इटली की साम्राज्यवादी सरकार ने ये घोषणा कर दी थी की लीबिया के सभी संसाधनों पर अब इटली का अधिकार होगा. ये उस दौर की बात है जब इटली बेहद शक्तिशाली देश था. उसकी बात के खिलाफ जाने का मतलब मौत होता था.आखिरकार 1911 में इटली की फौज ने सल्तनत-ए-उस्मानिया के इस इलाके यानी लीबिया पर हमला कर दिया ताकि वह उस्मानियों से यह इलाका छीन कर उस को अपने कब्ज़े में ले सकें. सल्तनत-ए-उस्मानिया के सिपाही इटली की फौज से सामना नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि लीबिया में सल्तनत-ए -उस्मानिया बहुत कमजोर थी, और लीबिया का पड़ोसी देश मिस्र पर ब्रिटेन ने पहले से ही कब्जा कर रखा था. जाहिर है मिस्र के जरिए से लीबिया का जो रास्ता सल्तनत के उस्मानिया की राजधानी इस्तांबुल तक पहुंचता था वह भी बंद हो चुका था. इसीलिए अब इटली की समुंद्री फौज के कमांडर ने यह ऐलान किया के तुर्की की फौज और लीबिया के आम लोग फ़ौरन हथियार डाल दें. वर्ना उनके शहर जो समुद्री इलाके पर मौजूद हैं, उन पर बमबारी की जाएगी तुर्की की फौज और लीबिया के आम लोगों ने हथियार डालने से मना कर दिया. जिसकी वजह से अब इटली की फौज भी लगातार 3 दिनों तक इन शहरों पर बमबारी करती रही. आखिरकार उस्मानी फौज को पीछे हटना पड़ा और इस तरह इटली की फौज ने लीबिया पर कब्जा कर लिया. लेकिन लीबिया के आम लोग इटली के इस कब्जे को किसी भी तरह बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे. इसीलिए लीबिया के लोगों ने इटली के खिलाफ बगावत कर दी और साथ ही साथ उन्होंने इटली के खिलाफ जंग का ऐलान भी कर दिया. उमर अल मुख्तार जो इससे पहले सिर्फ एक शिक्षक थे लोगों को दीन और इस्लाम के बारे में बताते थे लीबिया के आम लोगों ने अब उमर अल मुख्तार के नेतृत्व में इटली के खिलाफ जंग लड़ने का फैसला किया, लेकिन जाहिर है लीबिया के आम लोग इटली के ताकतवर फौज के सामने बहुत कमजोर थे. इटली की शक्ति को सभी बखूबी जानते भी थे, इसलिए इटली के खिलाफ जाने की हिम्मत कर पाना मुमकिन नही था. लेकिन उस वक़्त उस ज़मीन पर साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े होने वाला एक घुड़सवार “उमर मुख्तार” अपने गुट के साथ इटली की तानाशाही का विरोध करने के लिए तैयार था. उसने अपने देश, अपनी ज़मीन और अपनी संस्कृति की हिफाज़त करने के लिए ज़ुल्म के खिलाफ इटली की सेना से गोरिल्ला युद्ध लड़ने की तैयारी कर ली. एक अध्यापक के तौर पर बच्चों को पढ़ाने वाले उमर मुख़्तार ने भी अपनी ज़मीन और अधिकारों के लिए लड़ने का फैसला किया.उन्होंने 1000 लोगों का संगठन बना कर इटली के विरुद्ध जंग का ऐलान किया। और खुद उमर मुख़्तार इस दस्ते का नेतृत्व कर रहे थे। ये फैसला बहुत बड़ा था,क्योंकि उस समय ये नामुमकिन नजर आने वाला फैसला था। जब इटली के सामने कोई खड़ा होने की हिम्मत नही कर पाता था उस वक़्त ऐसा कह पाना हिम्मत का काम था. कलम से बंदूक थामने वाले उमर मुख़्तार को इस बात का पता था इटली की इस ताकतवर फौज से पार पाना आसान नहीं है.उमर अल मुख्तार ने उसी चीज का इस्तेमाल किया जिसमें उमर अल मुख्तार को सबसे से ज्यादा महारत हासिल था, और वह था गोरिल्ला युद्ध यानी उमर मुख्तार अपनी छोटी-छोटी टुकड़ियों के साथ छुप-छुप कर घात लगाकर इटली की फौजो पर हमला करते थे,और हमला करने के बाद फौरन ही रेगिस्तान में गायब हो जाते थे. इटली की ताकतवर फौज के लाख कोशिशों के बाद भी इन लोगों को नहीं ढूंढ पाती थी, लीबिया के आम लोग और उमर अल मुख्तार अच्छा मौका देख कर ही हमला करते थे. कभी इटली की किसी चौकी पर हमला करते तो कभी इटली की कोई बड़ी फौज की कोई टुकड़ी को अकेला देखकर हमला करते थे तो कभी कभी-कभी इटली की सप्लाई लाइन को काट दिया करते थे. अब इटली की फौज को उमर अल मुख्तार की काबिलियत का अंदाजा होना शुरू हो गया था. उमर मुख्तार ने 1911 से लेकर 1931 तक 20 साल तक लगातार इटली की फौज के खिलाफ अपनी जंग जारी रखी और इन 20 सालों में इटली की फौज को ऐसा नुकसान पहुंचा कि जिसके बारे में इटली की फौज ने कभी सोचा भी नहीं था. इटली की फौज उमर अल मुख्तार से बहुत ज्यादा परेशान हो गई थी. इन 20 सालों में कई बार उमर अल मुख्तार को खरीदने की कोशिश भी की गई थी इसके अलावा एक बार तो इटली उमर अल मुख्तार से समझौता करने को भी तैयार हो गई थी और यह समझौता हुआ भी था पर यह समझौता ज्यादा लंबे समय तक नहीं टिक पाया. उमर मुख्तार बहादुर होने के साथ-साथ बहुत ज्यादा होशियार भी थे, और इनकी ताकत का यह नतीजा था कि इटली की फौज ने उमर मुख्तार को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानना शुरू कर दिया था. उमर मुख़्तार न सिर्फ लड़े बल्कि लीबिया के भूगोल की समझ रखने वाले गुरिल्ला युद्ध के माहिर इस व्यक्ति ने इटली की सरकार को हिला कर रख दिया. पूरे 20 सालों तक लीबिया की साम्राज्यवादी सरकार के विरुद्ध संघर्ष किया, और फासीवादी ताकतों को कमज़ोर कर दिया. उमर का ये संघर्ष इतना कामयाब रहा की इटली की सेना दिन में ज़मीनो पर कब्जा किया करती थी, और रात में यह संघर्षकारी उसे आज़ाद करा लेते थे, इस काम और इस संघर्ष से उमर मुख़्तार को “रेगिस्तान का शेर” कहा जाने लगा.लीबिया का इलाका अधिकतर रेगिस्तान का इलाक़ा था, इसी वजह से अपनी गुरिल्ला युद्ध की तकनीक और पूरे इलाके की समझ का इस्तेमाल कर इटली की नीतियों और रणनीति के विरुद्ध चलने वाला ये सशस्त्र आंदोलन कामयाब हुआ और इटली की तानाशाह सरकार की हर नीति यहाँ विफल रही. उमर मुख्तार ज़मीनी तौर पर अपनी तकनीकों का इस्तेमाल करते थे. जहाँ एक तरफ इटली की फौजी गाड़ियों का इस्तेमाल करते थे तो वही दूसरी तरफ उमर मुख़्तार का गुट घोड़ों पर सफर करते हुए उन्हें मात देता था. इसी वजह से इटली के बहुत सारे बड़े-बड़े कमांडर उमर मुख्तार को रेगिस्तान का शेर कहना शुरू कर दिया था. उमर मुख़्तार ये जंग सिर्फ इसलिए लड़ रहे थे क्योंकि वो ज़ुल्म और अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठा रहे थे. इस पूरे जंग में उन्होंने या उनके किसी साथी ने कभी किसी बेगुनाह पर वार नहीं किया.उमर मुख़तार के साथियो ने इटली के 2 सिपाही को पकड़ा और उन्हे क़त्ल करने की कोशिश करने लगे तभी उमर मुख़तार ने उन्हे रोकत हुए कहा हम बंदियों को नही मारते. इस पर गुरिल्ला लड़ाको ने कहा वो तो बंदियों को मारते हैं, इसके बाद उमर मुख़तार ने जो जवाब दिया “वो काबिले तारीफ है. उमर मुख़तार ने कहा कि “वो जानवर है लेकिन हम नही. हम जानवर नही जो खून बहाते फिरे हम क्रांतिकारी है हम खुद के अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ रहे है. हमने हथियार आत्मरक्षा में उठाया है.” इटली जब लीबिया पर अपना कब्ज़ा करने की लगातार कोशिश कर रहा था तब लीबिया के बागियों का सरदार उमर मुख़्तार इटली की सेना को नाकों तले चने चबवा रहे थे. मुसोलिनी को एक ही साल में चार जनरल बदलने पड़े. अंत में हार मान कर मुसोलिनी को अपने सबसे क्रूर सिपाही जनरल ग्राज़ानी को लीबिया भेजना पड़ा. उमर मुख़्तार और उसके सिपाहियों ने जनरल ग्राज़ानी को भी बेहद परेशान कर दिया. जनरल ग्राज़ानी की तोपों और आधुनिक हथियारों से लैस सेना को घोड़े पर सवार उमर मुख़्तार व उनके साथी खदेड़ देते. वे दिन में लीबिया के शहरों पर कब्ज़ा करते और रात होते-होते उमर मुख्तार उन शहरों को आज़ाद करवा लेते. उमर मुख़्तार इटली की सेना पर लगातार भारी पड़ रहे थे और नए जनरल की गले ही हड्डी बन चुका था. अंततः जनरल ग्राज़ानी ने एक चाल चली. उसने अपने एक सिपाही को उमर मुख्तार से लीबिया में अमन कायम करने और समझौता करने के लिए बात करने को भेजा.उमर मुख्तार और जनरल की तरफ से भेजे गए सिपाही की बात होती है. उमर अपनी मांगे सिपाही के सामने रखते हैं सिपाही चुपचाप उन्हें अपनी डायरी में नोट करता है.सारी मांगे नोट करने के बाद सिपाही उमर मुख्तार को कहता है कि ये सारी मांगे इटली भेजी जाएंगी और मुसोलिनी के सामने पेश की जाएंगी. इटली से जवाब वापस आते ही आपको सुचित कर दिया जाएगा. इस पूरी प्रक्रिया में समय लगेगा जिसके चलते उमर मुख़्तार को इंतज़ार करने को कहा जाता है. उमर मुख्तार इंतज़ार करते हैं इटली की सेना पर वे अपने सारे हमले रोक देते हैं. मगर इटली से जवाब आने की बजाए आते हैं खतरनाक हथियार, बम और टैंक – जिससे शहर के शहर तबाह किए जा सकें. समय समझौते के लिए नहीं हथियार मंगाने के लिए माँगा गया था. कपटी ग्राज़ानी अपनी चाल में सफल होते हैं. नए हथियारों से लीबिया के कई शहर पूरी तरह से तबाह कर दिए जाते हैं.नाजी कर्नल एक जगह कहता है कि आज उमर मुख़्तार को मार गिराएंगे. पहले पुल को कब्जे में लेंगे फिर टैंक, मशीनगन से हमला करेंगे. दूसरा अफसर कहता है कि मैं हैरान हूं कि बागियों ने पुल क्यों नही उड़ाया. इस पर कर्नल बोलता है कि उमर मुख्तार सिर्फ लड़ना जानता है दिमाग चलाना नही जानता है. वो आप लोगो की तरह कोई मिलेट्री स्कूल में नही गया. सभी हंसते है. ये ही सेना की बेवकूफी उन सब को मौत के मुँह में धकेल देती है क्योंकि उमर का जो गुरिल्ला वार का अनुभव था वो बड़ी से बड़ी सेना को भी घुटने पर ले आये. जनरल ग्राज़ानी के लीबिया आने के बाद भी मैदान-ए-जंग में उमर मुख़्तार दो साल तक टिके रहे. ग्राज़ियानी ने लीबिया में अत्याचारों की हदें पार कर दी. लेकिन यहाँ भी यह “रेगिस्तान का शेर” जरा भी पीछे नही हटा और अपने देश की हिफाज़त में और वहां के लोगों के अधिकारों के लिए बराबर लड़ता रहा. यही वजह रही की “उमर मुख्तार” को पूरा इटली दस्ता अपना दुश्मन मानता था. 11 सितम्बर 1931 को जब 73 साल के उमर मुख़्तार और उनके गुट के लोग इटली के विरुद्ध लड़ रहे थे तभी अभी उमर मुख़्तार के घोड़े को गोली लग गयी और उमर मुख़्तार खुद को संभाल नहीं पाए. जिस शख्स का इटली की सेना में से किसी ने चेहरा नही देखा था वो आज इटली की फ़ौज के साथ हुई एक झड़प में घायल हो चूका था.उमर मुख़्तार को जनरल ग्राज़ानी की फ़ौज ने गिरफ़्तार कर लिया. कुछ लोगों का ये भी मानना है के इटली की फौज उमर मुख्तार को कुछ मुखबिरो की वजह से पकड़ने में कामयाब हो पाई थी और यह मुखबिर जो लीबिया के ही रहने वाले थे.15 सितम्बर 1931 को हाथों में, पैरों में, गले में हथकड़ी जकड़ उमर मुख़्तार को जनरल ग्राज़ानी के सामने पेश किया गया. जब जनरल ग्राज़ानी ने 73 साल के इस महान बुजर्ग योद्धा उमर मुख्तार की बुज़ुर्गी और बुढापे को देखा तो उनसे कहा के मैं चाहता हूं के तुमको ऐसे ही छोड़ दूं लेकिन तुम मुझसे यह वादा करो कि तुम मेरे खिलाफ कभी भी जंग नहीं करोगे, और लीबिया के दूसरे लोगों को भी हमारे खिलाफ जंग करने से रोकोगे इस पर उमर मुख्तार ने यह जवाब दिया कि मैं तुम लोगों से उस वक्त तक जंग करता रहूंगा कि जब तक मैं तुम लोगों को अपने देश से बाहर ना निकाल दूं या तो खुद शहीद ना हो जाऊं. उमर मुख़्तार ने बड़ी बहादुरी से दिया और कहा “हम हथियार नही डालेंगे, हम जीतेंगे या मरेंगे और ये जंग जारी रहेगी. तुम्हें हमारी अगली पीढ़ी से लड़ना होगा औऱ उसके बाद अगली से और जहां तक मेरा सवाल है. मैं अपने फांसी लगाने वाले से ज़्यादा जीऊंगा, और उमर मुख़्तार की गिरफ़्तारी से जंग नहीं रुकने वाली जनरल ग्राज़ानी ने फिर पुछा “तुम मुझसे अपने जान की भीख क्यों नही मांगते शायद मै ये दे दूं. इस पर उमर मुख़्तार ने कहा “मैने तुमसे ज़िन्दगी की कोई भीख ऩही मांगी. दुनिया वालों से ये न कह देना कि तुमसे इस कमरे की तनहाई में मैंने ज़िन्दगी की भीख मांगी है. इसके बाद उमर मुख़्तार उठे और ख़ामोशी के साथ कमरे से बाहर निकल गए.उसके बाद बूढ़े उमर मुख्तार को जंजीरों से जकड़ लिया गया और उनके पैरों में बेड़ियां डाल दी गई उनके ऊपर जुल्मों सितम करने वाले इटली के सिपाही बाद में यह बताते हैं कि जब कभी भी उनके ऊपर जुल्मों सितम किया जाता था और उनकी जबान खुलवाने की कोशिश की जाती थी, तो वह उस वक्त उनकी आंखों में आंखें डालकर क़ुरआने करीम की तिलावत करने लग जाते थे आखिरकार जब इटली की फौज उनका मुंह खुलवाने में कामयाब ना हो सकी तो उनके ऊपर एक ऐसी अदालत में मुकदमा चलाया गया के जो अदालत इटली ने ही कायम की थी.और इस अदालत ने उमर मुख्तार को फांसी की सजा सुनाई और आखिरकार 16 सितंबर 1931 को 73 साल की उम्र में लोगों के सामने उमर अल मुख्तार को फांसी पर चढ़ा दिया गया, क्योंकि अदालत की तरफ से यह आर्डर दिया गया था कि उमर अल मुख्तार को सब लोगों के सामने फांसी दी जाए, ताकि कोई भी इंसान या कोई उनका चाहने वाला इटली के खिलाफ जंग करने से बाज आ जाए. जिस निडरता से उमर मुखतार फांसी के फंदे की तरफ बढ़ते हैं है. ये सिर्फ एक मजबूत सोंच से लैस कोई महान योद्धा ही कर सकता है. उमर की फांसी के बाद लीबिया के आम लोगों में जो रोष और आंखों में पानी था वैसा ही ठीक हाल नाजी सेना के बहुत से सैनिकों और अफसरों का भी था.नाजी सेना को लगा था कि उमर मुख़्तार को फांसी देने से युद्ध रुक जाएगा. लेकिन उमर तो पहले ही कहते थे कि ये युद्ध हमारी आजादी तक चलेगा, मेरे मरने से ये युद्ध बन्द होने वाला नही है मेरे बाद मेरी आने वाली पीढ़िया ये लड़ाई लड़ेगी उसके बाद उससे अगली पीढ़ी लड़ेगी. आज पूरे विश्व मे ये ही तो लड़ाई चल रही है. उमर मुख्तार के बाद की दूसरी-तीसरी पीढ़िया लीबिया, सीरिया, फिलस्तीन से लेकर पूरे विश्व में साम्राज्यवाद के खिलाफ पूरी मजबूती से लड़ रही है. उमर ने ज़ुल्म के विरुद्ध अपनी आवाज़ को उठाया और ये दिखाया की ज़ुल्म के खिलाफ अपने देश से लड़ना कितना अहम है. वहीं उनकी कही बात आज तक सही साबित हुई हैउमर मुख़्तार आज भी जिंदा हैं, उनकी बहादुरी के कारनामे आज भी याद किये जाते हैं. लीबिया के कुछ नोटों पर आज भी उमर अल मुख्तार की तस्वीर लगी है और जाहिर सी बात है के उमर मुख्तार सिर्फ लीबिया ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के एक हीरो हैं. आज ज़ुल्म के खिलाफ उठायी गई उनकी आवाज़ अमर है. इस बहादुर योद्धा पर एक फ़िल्म भी बनी है “लॉयन ऑफ डिजर्ट”.भारत मे भी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने का अपना लम्बा इतिहास रहा है.उसी इतिहास को आगे बढ़ाते हुए भारत मे भी , तेलंगाना, नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ गुरिल्ला वार मजबूती से जड़े जमाये है. जिसका साम्राज्यवाद आरएसएस और उसकी पिट्ठू लुटेरी सत्ता के खिलाफ लड़ने का एक शानदार इतिहास है. भारत में भी कितने ही महान योद्धाओ ने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए अपनी शहादते दी है. भारत मे भी कितने ही क्रांतिकारी योद्धाओ को धोखे से बातचीत के लिए बुलाकर सत्ता ने निर्ममता से उनका कत्ल किया है.नागरीकता संशोधन कानून के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग का आंदोलन जो लगभग 100 दिनों तक चला, सरकार के विरुद्ध प्रतिशोध का महत्वपूर्ण उदाहरण है. इसी प्रकार किसान आंदोलन भी सरकार की नीतियों के विरुद्ध प्रतिशोध का महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसने सरकार को झुकने के लिए मजबूर किया.आज भी देश में बहुत सारे संगठन जुल्म और दमन के खिलाफ मुखर हैं और निर्णायक संघर्ष कर रहे हैं.ये युद्ध जारी है और रहेगा तब तक जब तक इंसान का इंसान शोषण बन्द नही करता, जब तक ये साम्राज्यवादी लूट बन्द नही होती जब तक ये लड़ाई जारी रहेगी.(ये आर्टिकल इमरान अहमद ने कलाम रिसर्च फाउंडेशन के लिए लिखा है)