इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
भारत सरकार द्वारा 43 रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार के तनिनथारी क्षेत्र के पास समुद्र में जबरन भेजे जाने की घटना ने देशभर में चिंता की लहर पैदा कर दी है। इस कार्रवाई की कड़ी निंदा करते हुए पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) ने इसे “अवैध, अमानवीय और अंतरराष्ट्रीय कानून का खुला उल्लंघन” करार दिया है।
PUCL के मुताबिक, इन शरणार्थियों—जिनमें मुस्लिम और ईसाई दोनों समुदायों के लोग शामिल थे—को पहले बायोमेट्रिक जांच के नाम पर फंसाया गया, फिर उन्हें दिल्ली से पोर्ट ब्लेयर और वहां से नौसेना के जहाजों के जरिए समुद्र में ले जाकर “मौत के हवाले कर दिया गया”।
PUCL ने आरोप लगाया है कि इन शरणार्थियों को आंखों पर पट्टी बांधकर, हाथ-पैर बांधकर नौसेना के जहाजों में चढ़ाया गया और म्यांमार के जलक्षेत्र में फेंक दिया गया, जहां से उनकी कोई खबर नहीं है। यह न केवल भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन है, बल्कि “नॉन-रिफाउलमेंट” जैसे अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सिद्धांतों की अवहेलना भी है।
इस बीच सरकार का तर्क है कि रोहिंग्या “अवैध प्रवासी” हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से उन्हें देश से बाहर किया जाना ज़रूरी है। लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ता और कई संगठनों का कहना है कि म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय आज भी हिंसा, नस्ली भेदभाव और सैन्य अत्याचारों का शिकार है। ऐसे में उन्हें वापस भेजना उनके जीवन को गंभीर खतरे में डालने जैसा है।
PUCL और अन्य मानवाधिकार संस्थाओं ने भारत सरकार से इस कार्रवाई की न्यायिक जांच कराने, जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने और जबरन निकाले गए शरणार्थियों को वापस लाने की मांग की है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक और सभ्य समाज को शरणार्थियों के साथ संवेदनशीलता और अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी के साथ पेश आना चाहिए, न कि उन्हें ‘समुद्र में मरने के लिए छोड़ने’ जैसी क्रूर कार्रवाई का शिकार बनाना चाहिए۔