इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
‘शांति समन्वय समिति’ ने छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा पर हुए माओवादी विरोधी ऑपरेशन ‘संकल्प’ को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए हैं और इसे एक ‘भीषण जनसंहार’ करार देते हुए स्वतंत्र जांच की मांग की है। समिति का कहना है कि इस ऑपरेशन में मारे गए 31 लोगों में कई नाबालिग और आम नागरिक हो सकते हैं, जिनकी लाशें बुरी हालत में अस्पताल पहुंचाई गईं।
14 मई को सीआरपीएफ डीजी और छत्तीसगढ़ के डीजीपी ने एक संयुक्त प्रेस वार्ता में ऑपरेशन की ‘सफलता’ का दावा किया, लेकिन शांति समन्वय समिति (Coordination Committee for Peace) ने इसे ‘भ्रामक और असंवेदनशील’ करार दिया है। समिति की ओर से कविता श्रीवास्तव, क्रांति चैतन्य और डॉ. एम.एफ. गोपीनाथ ने प्रेस बयान जारी करते हुए इस ऑपरेशन की तीखी आलोचना की और स्वतंत्र जांच की मांग रखी।
मुख्य आरोप और सवाल
बिना गिरफ्तारी, सीधे गोलीबारी: समिति ने आरोप लगाया कि सुरक्षा बलों ने किसी को कानूनी तौर पर गिरफ्तार करने का प्रयास नहीं किया, बल्कि सीधे मार गिराया।
लाशों पर इनाम का खेल: हर लाश पर इनाम मिलने की बात सामने आ रही है, जिससे सुरक्षा बलों के इरादों पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
गोपनीयता और विरोधाभास: मुख्यमंत्री विष्णु सिंह देव ने 22 मौतों की पुष्टि की थी, लेकिन उसी दिन गृहमंत्री विजय शर्मा ने ‘ऑपरेशन संकल्प’ के अस्तित्व तक से इनकार कर दिया।
शवों की हालत अमानवीय: अस्पताल में लाए गए शवों में कीड़े लगे हुए थे, कई की पहचान तक मुश्किल थी। एक शव मात्र 16 वर्ष के किशोर का बताया जा रहा है।
एकतरफा सैन्य कार्रवाई: जिस समय सीपीआई (माओवादी) ने एकतरफा युद्धविराम और शांति वार्ता की पेशकश की थी, उसी दौरान यह ऑपरेशन शुरू किया गया।
शांति समिति की मांगें
सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में स्वतंत्र लोकतांत्रिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की जांच टीम बनाई जाए।
2.इस संघर्ष को ‘सिविल वॉर’ घोषित कर संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं की निगरानी में लाया जाए।
3.मारे गए लोगों के शवों के साथ की गई अमानवीयता के लिए जिम्मेदार सुरक्षा बलों पर कार्रवाई हो।
4.‘ऑपरेशन कगार’ को तत्काल समाप्त किया जाए और युद्धविराम की घोषणा की जाए।
5.सीपीआई (माओवादी) के साथ वास्तविक शांति वार्ता शुरू की जाए।
पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी सरकार की कहानी पर सवाल उठाते हुए सोशल मीडिया पोस्ट्स के डिलीट किए जाने, सरकारी बयानों में विरोधाभास और मृतकों की पहचान छिपाने जैसे मुद्दे उठाए हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार के पास कुछ छिपाने को नहीं है, तो मृतकों की पहचान, पोस्टमार्टम रिपोर्ट और उनके संगठनात्मक संबंधों को सार्वजनिक किया जाए।
शांति समिति का मानना है कि इस ‘ऑपरेशन’ के नाम पर जो कुछ हुआ, वह न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि आदिवासियों और हाशिए पर खड़े लोगों के खिलाफ सरकार और सुरक्षाबलों की ‘युद्ध नीति’ का प्रतिबिंब है। अब देखना होगा कि सरकार जांच और जवाबदेही की दिशा में कौन-से कदम उठाती है।