
इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
मकतूब मीडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, जो देश के प्रमुख अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों में से एक है, इन दिनों विवादों में घिरा हुआ है। विश्वविद्यालय पर पीएचडी दाखिले 2024-25 में मुस्लिम छात्रों के लिए 50% आरक्षण नीति का पालन न करने का गंभीर आरोप लगा है। छात्र संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर हमला बताया है।
मकतूब मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, जामिया मिल्लिया इस्लामिया में 30% सीटें मुस्लिम छात्रों के लिए, 10% मुस्लिम महिलाओं के लिए और 10% मुस्लिम ओबीसी और एसटी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। लेकिन इस बार कई विभागों में इस नीति का उल्लंघन किया गया है।
*कई विभागों में आरक्षण नियमों का उल्लंघन
मकतूब मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार, विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित ए.जे.के मास कम्युनिकेशन एंड रिसर्च सेंटर में कुल 4 सीटों में से केवल 1 सीट ही मुस्लिम छात्रों को दी गई। वहीं, सेंटर फॉर कल्चर, मीडिया एंड गवर्नेंस में 7 में से केवल 1 सीट मुस्लिम छात्रों को मिली।
इतना ही नहीं, इतिहास एवं संस्कृति विभाग में 12 में से केवल 2 सीटें मुस्लिम छात्रों को दी गईं, जबकि मनोविज्ञान विभाग में 10 में से सिर्फ 2 मुस्लिम छात्रों को प्रवेश मिला। ये आंकड़े साफ़ दर्शाते हैं कि विश्वविद्यालय के कई विभागों ने आरक्षण नीति को दरकिनार कर दिया है।
*नए वीसी पर उठे सवाल, आरक्षण नीति में बदलाव का आरोप
इस पूरे विवाद के केंद्र में जामिया के नए कुलपति मजर आसिफ़ हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पांच साल के लिए की थी। रिपोर्ट के अनुसार, उनके आने के बाद विश्वविद्यालय की प्रशासनिक नीतियों में बदलाव देखा गया है, विशेष रूप से आरक्षण और छात्र आंदोलनों को लेकर।
मकतूब मीडिया के अनुसार, अक्टूबर 2024 में कुलपति द्वारा जारी एक अध्यादेश में “shall pay due attention” (इस पर ध्यान दिया जाएगा) को बदलकर “may pay due attention” (ध्यान दिया जा सकता है) कर दिया गया। इस छोटे से बदलाव ने आरक्षण नीति को अनिवार्य से वैकल्पिक बना दिया, जिसका असर इस साल के पीएचडी दाखिलों में साफ देखा जा सकता है।
*छात्र संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जताई नाराजगी
कई छात्र संगठनों ने इस फैसले की आलोचना की है। फ्रेटरनिटी मूवमेंट के अध्यक्ष जियाद मुहम्मद ने इसे “जामिया की स्वायत्तता और अल्पसंख्यक अधिकारों पर हमला” बताया।
मुस्लिम स्टूडेंट्स फेडरेशन (MSF) ने कहा कि “जामिया का यह फैसला अल्पसंख्यक दर्जे को कमजोर करने की साजिश है।” संगठन ने इस मुद्दे को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया है और सांसद एवं वकील हारिस बीरान से सलाह ली है।
*मामला पहुंचा हाई कोर्ट, 27 फरवरी को सुनवाई
जामिया के पूर्व छात्र और कानून के विद्यार्थी साहिल रज़ा खान ने दिल्ली हाई कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी है। उन्होंने पीएचडी प्रवेश परीक्षा पास की थी, लेकिन आरक्षण नीति के उल्लंघन के कारण प्रवेश नहीं मिल सका। अदालत इस मामले पर सुनवाई करेगी।
*ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू करने की कोशिश का भी विरोध
रिपोर्ट के मुताबिक, जामिया प्रशासन ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के तहत आरक्षण लागू करने की भी कोशिश की है, जबकि अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों पर यह नियम लागू नहीं होता। छात्र संगठनों का कहना है कि EWS को लागू करके मुस्लिम छात्रों के 50% आरक्षण को कमजोर करने की साजिश की जा रही है।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया का यह आरक्षण विवाद अब बड़ा रूप ले चुका है। एक ओर छात्र संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और कानूनी विशेषज्ञों ने विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, वहीं दूसरी ओर जामिया के अल्पसंख्यक दर्जे और स्वायत्तता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। अब देखना यह है कि हाई कोर्ट का फैसला क्या आता है और क्या विश्वविद्यालय प्रशासन अपने फैसले में कोई बदलाव करता है।