इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
सुप्रीम कोर्ट के 2019 के अयोध्या मामले के ऐतिहासिक फैसले पर अब न्यायपालिका के भीतर से ही सवाल उठे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने इस निर्णय को “कानूनी आधार से परे” करार दिया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत राम मंदिर निर्माण का आदेश दे दिया, जबकि अदालत में ऐसी कोई याचिका ही नहीं थी।
6 सितंबर को आयोजित ए.जी. नूरानी स्मृति व्याख्यान में मुरलीधर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर निर्माण का आदेश ऐसे समय दिया जब न तो कोई याचिकाकर्ता इसकी मांग कर रहा था और न ही यह मुकदमे का हिस्सा था। उन्होंने सवाल उठाया कि न्यायिक विवेक के बजाय व्यक्तिगत धार्मिक मान्यताओं का असर फैसले पर दिखाई दिया।
पूर्व जज ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के आरोपी नेताओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की निष्क्रियता को गंभीर चूक बताया। उन्होंने कहा कि भाजपा नेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के खिलाफ अवमानना याचिका 22 साल तक लटकती रही और अंततः बिना सुनवाई के खारिज कर दी गई। मुरलीधर के मुताबिक, यह न्यायपालिका की “institutional amnesia” थी।
मुरलीधर ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में भले ही Places of Worship Act, 1991 का उल्लेख किया हो, लेकिन देश में अब भी 17 से अधिक मामले अदालतों में लंबित हैं जो विभिन्न धार्मिक स्थलों की स्थिति को चुनौती देते हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि यह प्रवृत्ति आने वाले समय में नए विवाद खड़े कर सकती है।
मुरलीधर ने देश की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी कटघरे में खड़ा किया। उन्होंने कहा कि टीवी चैनल लगातार हिंदू–मुसलमान बहस तक सीमित हो गए हैं, जबकि भारत की असली ताकत उसकी सांस्कृतिक विविधता में है।
उन्होंने जजों से अपील की कि वे अपनी व्यक्तिगत धार्मिक मान्यताओं को सार्वजनिक मंच पर “तमाशा” न बनाएं।
अपने संबोधन के अंत में मुरलीधर ने कहा कि भारत इस समय एक निर्णायक दौर से गुजर रहा है।।“न्यायिक प्रक्रिया को धर्मशास्त्र नहीं, संविधान दिशा दे। नई पीढ़ी को संवैधानिक चेतना से लैस करना ही समय की मांग है।”
उनका यह बयान अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर एक बार फिर बहस को हवा देने वाला माना जा रहा है।