इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
बिहार विधानसभा चुनाव का माहौल बन चुका है और जातीय समीकरणों की चर्चा हर जगह है। ऐसे समय में आज (25 अगस्त) उस शख्सियत की जयंती है, जिनका नाम लिए बिना जाति और सामाजिक न्याय की राजनीति अधूरी है—बी.पी. मंडल।
25 अगस्त 1918 को मधेपुरा ज़िले के मुरहो एस्टेट के यादव परिवार में जन्मे बी.पी. मंडल का राजनीतिक सफर लंबा नहीं रहा, लेकिन उनकी मंडल आयोग रिपोर्ट ने भारतीय राजनीति की दिशा और दशा हमेशा के लिए बदल दी।
30 दिन का मुख्यमंत्री कार्यकाल, लेकिन बड़ा असर
1968 में बी.पी. मंडल बिहार के मुख्यमंत्री बने, लेकिन यह कार्यकाल मात्र 30 दिन का रहा। इस छोटे से कार्यकाल ने ही यह संदेश दे दिया कि मुख्यमंत्री की कुर्सी केवल सवर्णों की बपौती नहीं है।
मुख्यमंत्री रहते हुए सदन में उन्होंने जातीय तंज का सामना भी किया। बरौनी रिफाइनरी से तेल रिसाव और गंगा में आग लगने की घटना पर विपक्ष ने कहा—“शूद्र मुख्यमंत्री होगा तो पानी में आग लगेगा।”
मंडल ने जवाब दिया—“गंगा में आग तो तेल से लगी है, लेकिन पिछड़े वर्ग का बेटा मुख्यमंत्री बन गया, इस बात से आपके दिल में जो आग लगी है, उसे हर कोई महसूस कर सकता है।”
कांग्रेस से मोहभंग और संसोपा का साथ
मंडल ने 1952 में कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीता। लेकिन धीरे-धीरे कांग्रेस से उनका मोहभंग हुआ और 1965 में उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) का दामन थाम लिया।
संसोपा का नारा—“संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ”—बाद में बिहार-यूपी की राजनीति की धड़कन बना।
मंडल आयोग : राजनीति में भूचाल
1979 में प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने बी.पी. मंडल को दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, देश की 52% आबादी ओबीसी वर्ग की है और इन्हें नौकरियों व शिक्षा में 27% आरक्षण मिलना चाहिए।
1980 में यह रिपोर्ट सरकार को सौंप दी गई, लेकिन लंबे समय तक ठंडे बस्ते में पड़ी रही। मंडल साहब का 1982 में निधन हो गया और वे यह दिन नहीं देख पाए।
1990 में प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने अचानक मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान कर दिया। इसके बाद पूरे देश में सवर्णों का उग्र आंदोलन हुआ, आत्मदाह की घटनाएं हुईं और राजनीति “मंडल बनाम कमंडल” के विमर्श में बंट गई।
मंडल बनाम कमंडल
एक ओर लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव जैसे नेता मंडल राजनीति के चेहरे बने। दूसरी ओर बीजेपी ने इसका जवाब राम मंदिर आंदोलन से दिया।
1990 का दशक सामाजिक न्याय बनाम हिंदुत्व की राजनीति का दौर रहा।
आज भी प्रासंगिक मंडल
आज 2025 में खड़े होकर देखें तो ओबीसी राजनीति हर दल की रणनीति का अहम हिस्सा है।
नीतीश कुमार, लालू यादव और तेजस्वी यादव सब मंडल की राजनीति से निकले। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को “ओबीसी प्रधानमंत्री” के रूप में पेश किया! जातीय जनगणना की मांग ज़ोरों पर है और केंद्र सरकार ने भी इसका ऐलान कर दिया है।
बी.पी. मंडल कहा करते थे—“ओबीसी परिवार का कोई बेटा अगर कलेक्टर बनेगा तो सिर्फ उसके घर को नहीं, पूरे समाज को लगेगा कि उनका भी सत्ता में हिस्सा है।”
बी.पी. मंडल का जीवन छोटा था, लेकिन उनका असर इतना गहरा है कि 43 साल बाद भी उनकी जयंती पर सत्ता से लेकर समाज तक उनकी चर्चा होती है।
भारतीय राजनीति में “सामाजिक न्याय” और “आरक्षण” आज भी केंद्रीय मुद्दा हैं, और इसकी नींव रखने वाले बी.पी. मंडल को इतिहास हमेशा याद रखेगा।