इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
ओडिशा में बंगाल से गए सैकड़ों बंगाली भाषी प्रवासी श्रमिकों को कथित तौर पर हिरासत में लेने के मामले में कोलकाता हाईकोर्ट ने गंभीर रुख अपनाते हुए ओडिशा सरकार से विस्तृत जवाब मांगा है। अदालत ने पश्चिम बंगाल सरकार के मुख्य सचिव को निर्देश दिया है कि वह एक वरिष्ठ नोडल अधिकारी की नियुक्ति करें, जो ओडिशा प्रशासन के साथ समन्वय कर श्रमिकों की रिहाई सुनिश्चित करे।
मुख्य न्यायाधीश तपब्रता चक्रवर्ती और न्यायमूर्ति रीतोब्रतो मित्र की पीठ ने कहा कि “अदालत इस मामले में मूक दर्शक नहीं रह सकती।यदि मज़दूरों के पास वैध दस्तावेज हैं, तो उन्हें बंगाली भाषा बोलने या फोन में विदेशी नंबर होने मात्र से हिरासत में नहीं लिया जा सकता”।
प्रवासी श्रमिकों की गिरफ्तारी को लेकर एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान यह निर्देश जारी हुआ। याचिकाकर्ता की ओर से बताया गया कि ओडिशा के झारसुगुड़ा और जगतसिंहपुर जिलों में कुल 444 बंगाली मजदूरों को रोका गया था, जिनमें से 403 को बाद में रिहा कर दिया गया। हालांकि कुछ अभी भी हिरासत में हैं।
कोर्ट ने यह भी पूछा कि क्या इन मजदूरों के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज की गई है और क्या हिरासत की प्रक्रिया कानूनी ढंग से की गई थी। अदालत ने ओडिशा सरकार से अगली सुनवाई तक इस पर पूरी रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया है।
इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक माहौल भी गर्म हो गया है। तृणमूल कांग्रेस ने इसे बंगालियों के साथ भेदभावपूर्ण कार्रवाई बताया है, वहीं भाजपा नेताओं का कहना है कि ये श्रमिक “संदिग्ध विदेशी नागरिक” हैं। भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने दावा किया है कि मजदूरों के दस्तावेज़ फर्जी पाए गए हैं।
टीएमसी सांसद सामिरुल इस्लाम ने इन दावों को खारिज करते हुए कहा कि यह बंगाली मजदूरों को बदनाम करने की एक सोची-समझी कोशिश है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कुछ मजदूरों को सिर्फ इसलिए हिरासत में रखा गया क्योंकि उनके फोन में बांग्लादेशी नंबर पाए गए।
कोर्ट ने इस मामले में अगली सुनवाई की तारीख 14 जुलाई तय की है। वहीं, दिल्ली से सटे एक अन्य मामले में बंगाली भाषी छह लोगों की कथित डिपोर्टेशन की घटना पर भी हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार से रिपोर्ट तलब की है।