“जातिगत जनगणना महज़ गिनती नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक हक़ीक़तों को सामने लाने का औज़ार होनी चाहिए। अब वक़्त आ गया है कि हाशिये पर खड़े समाजों को उनका हक़ और हक़ीक़ी प्रतिनिधित्व दिया जाए।”
— अली अनवर अंसारी, पूर्व राज्यसभा सांसद व अध्यक्ष ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज
अली अनवर अंसारी पिछले करीब 26 वर्षों से मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातियों को उनका संवैधानिक हक़ दिलाने के लिए संघर्षरत हैं। वे ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के अध्यक्ष हैं और 2006 से 2017 तक राज्यसभा सांसद रहे। पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से आने वाले अली अनवर लंबे समय तक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर लेखन और सक्रिय हस्तक्षेप करते रहे हैं। वे पहले जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के वरिष्ठ नेता रहे, और फरवरी 2025 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए। केंद्र की एनडीए सरकार द्वारा जातिगत जनगणना के ऐलान के बाद इंसाफ़ टाइम्स हिंदी के ब्यूरो चीफ़ अब्दुल रकीब नोमानी ने उनसे विस्तार से बातचीत की। इस इंटरव्यू में जातिगत जनगणना, पसमांदा मुसलमानों की वर्तमान स्थिति, और सामाजिक न्याय की दिशा में उठाए जाने वाले ठोस क़दमों पर चर्चा हुई।
सवाल- आपने जातिवार जनगणना की मांग काफी पहले उठाई थी। क्या आप उस दौर का अनुभव साझा कर सकते हैं और यह मांग किस तरह से राष्ट्रीय विमर्श में आई?
जवाब- यह मांग मेरे लिए एक व्यक्तिगत और राजनीतिक अनुभव का हिस्सा रही है। 18 दिसंबर 2009 को मैंने राज्यसभा में स्पेशल मेंशन के जरिए यह मुद्दा उठाया था कि आगामी 2011 की जनगणना जातिवार होनी चाहिए। उस वक्त इस पर किसी सांसद ने समर्थन नहीं किया और यह महसूस हुआ कि मैं एक अकेली आवाज़ बनकर रह गया। एक तरह से यह नक्कारखाने में तूती की आवाज़ जैसी हो गई थी। मगर मुझे हमेशा विश्वास रहा है कि अगर कोई बात सही हो और कोई एक व्यक्ति भी उसे उठाए तो समय के साथ वह सामूहिक आवाज़ बन जाती है। मेरी आवाज़ भी समय के साथ गूंजने लगी। कुछ युवा, वकील, प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता, जिनमें राज नारायण का नाम खास तौर पर लिया जा सकता है, इस मुद्दे को लेकर शरद यादव जी से मिले। उन्होंने यह कहा कि एक मुस्लिम सांसद ने इतना अहम सवाल उठाया है, लेकिन आपकी पार्टी से भी कोई समर्थन नहीं कर रहा। शरद यादव जी ने स्वीकार किया कि यह मांग जायज़ है और उन्होंने कहा कि हम इनको अगले सत्र में उठाएंगे। इसके साथ ही उन्होंने आगे कहा कि डॉ. राम मनोहर लोहिया के जमाने से यह सवाल उठता रहा है। बी.पी. मंडल की रिपोर्ट में भी जातिवार जनगणना की सिफारिश की गई थी। इसके बाद इन लोगों ने लालू यादव, मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं से संपर्क किया और मई 2010 के बजट सत्र के दूसरे हिस्से में इस मुद्दे को उठाया। अब यह केवल मेरी आवाज़ नहीं थी, यह पूरे हाउस की आवाज़ बन चुकी थी। भाजपा के गोपीनाथ मुंडे जैसे नेता, कॉंग्रेस के ओबीसी सदस्य सभी ने इसे समर्थन दिया। नतीजा यह हुआ कि यूपीए-2 सरकार ने इस मांग को मंजूरी दी और जातिवार जनगणना करवाई। हालांकि इसमें एक बड़ी चूक हुई इसे 1950 के सेंसस एक्ट से अलग रखा गया और यह काम अनस्किल्ड NGO कर्मियों से कराया गया। सेंसस कमिश्नर और उसका सचिवालय इस काम में विशेषज्ञ होते हैं, जो सही तरीके से डाटा इकट्ठा करते हैं। इस वजह से डाटा अधूरा और बिखरा हुआ आया और फिर उसे “तकनीकी गड़बड़ी” कहकर दबा दिया गया। हमने बार-बार यह मांग की कि जो भी डाटा है, वह प्रकाशित किया जाए। 2011 में जनगणना हुई थी और 2012 तक उसका संकलन हो चुका था। 2013 से हम इसकी मांग करते रहे, इसी बीच चुनाव आ गई, सरकार बदल गई, फिर 2014 में मोदी जी की सरकार आई, और तब भी हम यह मांग करते रहे। लेकिन वह डाटा आज तक जारी नहीं किया गया।
सवाल – आप वर्तमान में केंद्र सरकार की नई जातिगत जनगणना घोषणा को किस नज़रिए से देख रहे हैं?
जवाब- एक तो खुशी भी है क्योंकि जिस माँग को लेकर लंबे समय से संघर्षरत रहे हैं. उनको कराने की घोषणा अब हो गई है। लेकिन इनके साथ चिंताएं भी है क्योंकि 2021 की जनगणना जो होनी थी, वह अब तक नहीं हुई है। 2022, 2023, 2024 निकल गए और अब 2025 भी आधा गुजर चुका है. अब जाकर मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना कराने की बात की है, वह भी ज़्यादा हवा-हवाई लगती है क्योंकि इसमें कोई टाइमलाइन नहीं दी गई है, न ही कोई नया बजट। हमने पता किया तो मालूम हुआ कि जो ₹500 करोड़ पहले से अलॉट था, वही बजट अब भी दिखाया जा रहा है। पहले कोरोना का बहाना बना, फिर चुनाव का और अब भारत-पाक तनाव की स्थिति दिख रही है। अगर कहीं फुल-स्केल वॉर हुआ तो यह एक और बहाना बन सकता है कि जनगणना टाल दी जाए। लेकिन हम यही प्रार्थना करते हैं कि हालात खराब न हों और सब कुछ शांति से हल हो। युद्ध किसी भी देश के लिए फायदे का सौदा नहीं होता। अब बात करते हैं सरकार की मंशा की। असली मंशा उस वक्त साफ होती है जब गोदी मीडिया और आईटी सेल किसी मुद्दे पर किस तरह का प्रचार करते हैं। आजकल ये प्रचार कर रहे हैं कि जातिगत जनगणना पसमांदा मुसलमानों के लिए है और उनकी गिनती पहली बार होगी। यह सरासर झूठ है। क्योंकि जातिवार जनगणना का मतलब होता है कि देश की हर जाति, हर धर्म, हर वर्ग — हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, ट्रांसजेंडर सभी की जातियों की गिनती। यह केवल पसमांदा मुसलमानों का मुद्दा नहीं है। “ये लोग सिर्फ पसमांदा की बात इसलिए कर रहे हैं ताकि मुसलमानों को आपस में लड़ाया जाए, उन्हें बांटा जाए और इसका राजनीतिक फायदा बीजेपी को मिले। इसीलिए हम साफ कहते हैं कि अगर जातिवार जनगणना करनी है, तो ईमानदारी से, पारदर्शिता से, और पूरी गंभीरता से की जानी चाहिए न कि लोगों को भटकाने और बांटने के इरादे से।
सवाल- भारतीय जनता पार्टी के नेता पहले जातिगत जनगणना की मांग को “बांटो और काटो” जैसी नीति बताते थे। अब इस ‘यू-टर्न’ की क्या वजह आपको लगती है?
जवाब – पहले तो केंद्र सरकार और बीजेपी के नेता “बांटो और काटो” का नारा लगाते थे। इनके मुख्यमंत्री और तमाम नेता यहाँ तक कि आरएसएस भी शुरू से ही इसके खिलाफ रही है। जब पहली बार जातिगत जनगणना को लेकर चर्चा शुरू हुई तो जंतर-मंतर पर गेरुआधारी संगठन जैसे विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की तरफ से इसके विरोध में प्रदर्शन हुआ था। अब जो यू-टर्न लिया गया है. उसके पीछे कई मकसद हैं। पहला मकसद है कि बिहार, बंगाल और फिर उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव आने वाले हैं। इन राज्यों में जातिगत जनगणना का मुद्दा पहले से ही ज़ोर पकड़ता रहा है। बीजेपी को डर है कि पिछड़े वर्ग और दलित समुदाय के लोग इस मांग का समर्थन कर रहे हैं और इससे उन्हें फायदा मिल सकता है। दूसरा कारण यह है कि पहले इस सवाल के चैंपियन सामाजिक न्याय की धारा वाली पार्टियाँ हुआ करती थीं—जैसे आरजेडी, समाजवादी पार्टी। लेकिन अब देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस और ख़ासकर राहुल गांधी इस मुद्दे के अगुवा बन गए हैं। बीजेपी को डर है कि पिछड़े वर्ग का झुकाव कांग्रेस की ओर न हो जाए। इसी से ध्यान हटाने के लिए और पहलगाम की हालिया घटना से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए इस घोषणा को फौरी तौर पर कर दिया गया। इनके बाद प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में लग गए। बिहार के मधुबनी में वे चुनाव प्रचार के लिए आ गए, जबकि विपक्षी दलों की दो-दो बड़ी बैठकें हो चुकी हैं, जिनमें प्रधानमंत्री नहीं गए। लेकिन यहां आ गए। उनके होर्डिंग्स लगने शुरू हो गए हैं, जिनमें पहलगाम इन्साफ़ का ज़िक्र है, लेकिन सेना की तस्वीर नहीं है—बल्कि प्रधानमंत्री, अमित शाह और रक्षा मंत्री की तस्वीरें हैं। इससे साफ़ है कि यह चुनावी फायदा लेने के लिए किया गया कदम है ताकि राहुल गांधी के नेतृत्व में पिछड़े वर्ग की राजनीति न सशक्त हो जाए। तीसरा मकसद यह है कि यह प्रचार किया जाए कि इससे पसमांदा मुसलमानों को फायदा होगा—यह दावा किया जा रहा है कि पहली बार उनकी गिनती होगी। यह पूरी तरह गलत है। यह सिर्फ पसमांदा मुसलमानों का मामला नहीं है—यह गिनती तो पूरे देश के सभी धर्म और जातियों की होगी। अगड़ा, पिछड़ा, हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और यहाँ तक कि थर्ड जेंडर की भी गिनती होगी। यह सिर्फ एक वर्ग को टारगेट कर के, मुसलमानों में फूट डालने की कोशिश है, जिससे बीजेपी को फायदा हो सके। यही वजह है कि कुछ लोग प्रचार कर रहे हैं कि जब जाति पूछी जाए तो ‘मुसलमान’ लिखवाओ और धर्म में ‘इस्लाम’ लिखवाओ। यह प्रचार बीजेपी के अनुषांगिक संगठन पहले भी करते रहे हैं और अब भी कर रहे हैं।
सवाल- क्या आपको लगता है कि जातिगत जनगणना कराने के बाद सरकार उसके आंकड़े सार्वजनिक करेगी या 2011 की तरह इस बार भी डेटा दबा लिया जाएगा?
जवाब- देखिए, इस बात का अंदेशा ज़रूर है। लेकिन इस बार ऐसा दबाव बना है कि अब एक तरह की राष्ट्रीय सहमति बन चुकी है। अब सरकार के पास पीछे हटने का रास्ता नहीं है। हां, अगर फुल-स्केल युद्ध जैसी कोई स्थिति बनती है. खुदा न करे कि ऐसा हो तो संभव है कि सरकार उसी को बहाना बनाकर इसे टालने की कोशिश करे और यह प्रक्रिया या तो रुक जाए या बीच में अटक जाए। इसकी मिसाल हमारे सामने है। बहुत लोग कहते हैं कि 1931 के बाद जातिगत जनगणना नहीं हुई, लेकिन यह जानकारी ज़रूरी है कि 1941 में भी जातिगत जनगणना हुई थी। लेकिन उसी समय दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया और उस युद्ध के चलते आंकड़े सार्वजनिक नहीं हो सके। तो ऐसे हालात में सरकार एक बार फिर यही पुराना बहाना इस्तेमाल कर सकती है।
हम यह नहीं कह रहे कि ऐसा ज़रूर होगा, लेकिन इसकी संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। खासकर अगर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े चुनाव निपट जाएं तो फिर सरकार के लिए इस जनगणना को दबा देना फायदे का सौदा बन सकता है। हमने तो 18 दिसंबर 2009 से ही इसके लिए अभियान चलाना शुरू कर दिया था। हमने बुकलेट्स छापीं, नारे दिए—”सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एक ही इलाज: जातिगत जनगणना के लिए हो जाओ तैयार, दलित-पिछड़ा एक समान, हिंदू हो या मुसलमान।” ये नारे लेकर हमने दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड तक पूरे देश में प्रचार किया। बीजेपी इसलिए डरती है. क्योंकि वह जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का गुब्बारा फुलाती है, जातिगत जनगणना उस गुब्बारे में छेद कर देती है। और जब गुब्बारा फूट जाता है तो उनकी पूरी रणनीति धराशायी हो जाती है। यही वजह है कि वे हमेशा इससे कतराते हैं।
सवाल – विपक्ष कह रहा है जातिगत जनगणना उनकी जीत मानी जाए, तो आगे इसे पूरी तरह से लागू करवाने और डेटा जारी करवाने के लिए विपक्ष को क्या रणनीति अपनानी चाहिए?
जवाब- अब यह तो विपक्षी पार्टियाँ तय करेंगी कि उनकी रणनीति क्या होगी, लेकिन जहां तक हमारी बात है—हम जो “ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़” संगठन चला रहे हैं. उसका अभियान हम पहले से ही चला रहे थे और अब इसे और तेज़ करेंगे। हालांकि फिलहाल पहलगाम की घटना और वर्तमान तनावपूर्ण हालातों के कारण यह आंदोलन कुछ समय के लिए शांत अवस्था में चला गया है। लेकिन जैसे ही हालात सामान्य होंगे, हम इस सवाल को फिर से पूरी ताक़त के साथ उठाएंगे और जन जागरूकता बढ़ाएंगे। जातिगत जनगणना के सवाल को अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता। यह हमारे लोकतंत्र की बुनियादी मांग है।
सवाल- आप पसमांदा मुसलमानों के अधिकारों की लगातार बात करते रहे हैं. इस जातिगत जनगणना के ऐलान को आप पसमांदा मुसलमानों के लिए कितना लाभकारी मानते हैं?
जवाब- देखिए, सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि यह जनगणना सिर्फ पसमांदा मुसलमानों की नहीं होगी बल्कि सभी जातियों की होगी। हमारा मानना है कि सिर्फ जाति की गिनती करना ही उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि जातियों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक (तालीमी) स्थिति का भी आकलन होना चाहिए। हमें यह भी जानना चाहिए कि किस तबके की हालत कैसी है? इसके अलावा हमें यह जानने की जरूरत है कि भारत सरकार के विभिन्न विभागों, खासकर नीति निर्माण से जुड़े पद – जैसे कि आईएएस, आईपीएस और सचिव स्तरपर कितने पसमांदा लोग हैं? चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान। पसमांदा शब्द का मतलब सिर्फ मुसलमान नहीं होता, इसमें दलित, पिछड़े, अति पिछड़े और महादलित सभी आते हैं। उर्दू-फारसी में हम इन्हें पसमांदा कहते हैं। जातिगत जनगणना से इन तबकों की सही संख्या और हालत सामने आएगी। इससे यह पता चलेगा कि सरकारी नौकरियों में इनकी कितनी भागीदारी है और निजी क्षेत्र में इनका क्या प्रतिनिधित्व है। हम यह भी चाहते हैं कि मीडिया, पुलिस और दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी गणना हो—ताकि यह पता चले कि वहां पसमांदा तबकों की कितनी हिस्सेदारी है। पुलिस में खासतौर से इसलिए यह जरूरी है क्योंकि जब भी दंगे या जातीय टकराव होते हैं, तो कई बार पुलिस का रवैया पक्षपातपूर्ण होता है। अगर पुलिस में सभी तबकों की बराबर नुमाइंदगी होगी तो न्यायसंगत व्यवहार की उम्मीद बढ़ेगी।
इसके अलावा यह भी जानना जरूरी है कि किसके पास कितनी ज़मीन है, क्योंकि ज़मीन ही असली ताक़त है—सियासत, अर्थव्यवस्था और समाज में। जिनके पास ज़मीन होती है, वही आगे बढ़ते हैं। साथ ही यह भी गिनती होनी चाहिए कि किन लोगों को कितने ठेके मिलते हैं, किसके पास छोटे-बड़े कल-कारखाने हैं, और कितने आय के स्रोत हैं। हम सरकार से यह मांग करते हैं कि वह पहले से यह स्पष्ट करे कि जनगणना में कौन-कौन से सवाल पूछे जाएंगे? यह प्रोफार्मा सार्वजनिक किया जाए, ताकि लोग सुझाव दे सकें कि क्या और जोड़ा जाना चाहिए। इसका प्रचार अखबारों और अन्य माध्यमों से किया जाए। साथ ही सरकार को यह भी प्रचारित करना चाहिए कि जनगणना एक्ट 1950 के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति गलत जानकारी देता है या दर्ज करता है—तो वह दंडनीय अपराध होगा। यह नियम आम लोगों और सरकारी कर्मचारियों दोनों पर लागू होता है। जातिगत पूर्वाग्रह की वजह से अगर कोई कर्मचारी गलत दर्ज करता है तो उसके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए।
इन सभी बातों का व्यापक प्रचार जरूरी है. ताकि लोग जिम्मेदारी से और सही जानकारी के साथ इस जनगणना में हिस्सा लें।
सवाल- आपने एक इंटरव्यू में कहा था कि आज भी अशराफ तबका पसमांदा पर बौद्धिक वर्चस्व बनाए हुए है। क्या मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के नाम पर एक नई क्रांति की जरूरत है?
जवाब- हाँ, यह बदलाव आ रहा है, लेकिन सवाल यह है कि इसकी तीव्रता (डिग्री) क्या होगी और इसमें कितना समय लगेगा? अभी देश के हालात देखें तो यह दौर बहुत नाज़ुक है। साम्प्रदायिक उभार पैदा करने की कोशिश की जा रही है। भारत-पाकिस्तान जैसे मुद्दों को उछाल कर ध्रुवीकरण किया जा रहा है। बीजेपी का आईटी सेल और उसके सहयोगी संगठन गंदा प्रचार कर रहे हैं। गोदी मीडिया भी हिंदू-मुसलमान का माहौल बनाने में लगा है। ऐसे समय में किसी भी बात को कहने में समय, स्थान और प्रस्तुति का विशेष ध्यान रखना जरूरी है। बयान किस अंदाज़ में दिया जाए, यह भी महत्वपूर्ण है।
सवाल- आप कहते हैं कि “हम पसमांदा के रूप में जारी नहीं रहना चाहते, हम ‘पेशमांदा’ बनना चाहते हैं।” इस ‘लीडरशिप रोल’ के रास्ते में सबसे बड़ी दीवार किसे देखते हैं: सत्ता, समाज या कुछ और?
जवाब- दीवार तो सब हैं. सत्ता भी है, समाज भी है और सियासी पार्टियां भी हैं। और सबसे बड़ी बात ये कि कुछ ऐसे लोग जो मुसलमानों की नुमाइंदगी करने लगते हैं बिना चुने हुए। अब मुसलमानों की जब बात होती है तो 80-90% तो पसमांदा मुसलमान ही हैं। लेकिन जितने मजहबी इदारे हैं. जैसे जमीयत उलमा-ए-हिंद (वो भी दो हैं, चाचा-भतीजा अलग-अलग), दोनों ही होलसेल की दुकान चला रहे हैं, कोई रिटेल वाला नहीं है। ऐसे ही ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो या दूसरे मजहबी इदारे इन सबका नेतृत्व उन्हीं लोगों के हाथ में है।
ये लोग जज्बाती सवालों को उठाकर लीडर बन जाते हैं, जबकि हमारे असल सवाल हैं. रोज़गार, रोटी, सामाजिक बराबरी और सत्ता में हिस्सेदारी। लेकिन इन सवालों पर बात नहीं होती। अब जो मौजूदा माहौल है, जिसमें साम्प्रदायिकता का उफान है, बीजेपी और आरएसएस की जो हुकूमत है, वो जिस रास्ते पर देश को ले जा रही है। ऐसे में हमें बहुत एहतियात से, नपे-तुले अंदाज़ में अपनी बात रखनी होती है। और हम वही कर रहे हैं सोच-समझकर, वक्त और हालात को देखकर।
सवाल- क्या आपको लगता है कि मुस्लिम समाज की कई ऐसी जातियाँ हैं जिन्हें अभी जनरल श्रेणी में रखा गया है, जबकि वे वास्तव में OBC या EBC श्रेणी में होनी चाहिए? इस मामले में जातिगत जनगणना क्या भूमिका निभा सकती है?
जवाब: देखिए, मैं खुद तीन साल तक पिछड़ा वर्ग आयोग (Backward Commission) का सदस्य रहा हूं। उस दौरान मैंने देखा कि कई ऐसे लोग जो वास्तव में सामाजिक रूप से पिछड़े नहीं हैं, वे भी कोशिश करते हैं कि किसी तरह आरक्षण वाले कोटे में आ जाएं। हमारे कार्यकाल में तो हमनें ऐसे कई मामलों को रोका, लेकिन बाद के दिनों में कुछ लोग शामिल हो भी गए। इससे भी बड़ी बात ये है कि सभी मुसलमानों को आरक्षण मिलना संभव नहीं है, क्योंकि यह मज़हब के आधार पर नहीं मिलता. संवैधानिक व्यवस्था यही कहती है। लेकिन एक अहम मुद्दा है कि मुस्लिम और ईसाई दलितों के साथ भेदभाव हो रहा है। संविधान की धारा 341 जो अनुसूचित जातियों से संबंधित है, उस पर एक ‘धार्मिक प्रतिबंध’ (religious restriction) लगा दिया गया है। यानी अगर कोई दलित मुसलमान या ईसाई हो जाता है तो उसे अनुसूचित जाति की मान्यता नहीं मिलती। ये एक प्रकार का मजहबी भेदभाव है, जिसे खत्म किया जाना चाहिए। इसकी सिफारिश सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग दोनों ने की थी। हमारा पसमांदा आंदोलन 1998 में शुरू हुआ और 2004 में जब यूपीए की सरकार आई, तो कांग्रेस की नेतृत्व में मनमोहन सिंह सरकार ने पहले रंगनाथ मिश्रा आयोग और फिर सच्चर कमेटी का गठन किया। सच्चर कमेटी मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक हालत का एक्स-रे है, जबकि रंगनाथ मिश्रा आयोग उसका इलाज (प्रेस्क्रिप्शन) पेश करता है। रंगनाथ मिश्रा आयोग ने साफ़ कहा कि धारा 341 पर लगाया गया मजहबी प्रतिबंध असंवैधानिक है और इसे तत्काल हटाया जाना चाहिए। और ये काम संविधान संशोधन के बिना सिर्फ कार्यपालिका (Executive) के आदेश से ही संभव है।
सवाल- क्या आपको लगता है कि मुस्लिम समाज के कुछ वर्गों की ओर से जातिगत जनगणना का विरोध हो सकता है?
जवाब: हां, बिल्कुल। विरोध तो अब शुरू भी हो चुका है। जैसे ही जातिगत जनगणना की बात तेज़ हुई है, कुछ लोगों ने सोशल मीडिया और WhatsApp पर एक अभियान चलाना शुरू कर दिया है कि “जाति के कॉलम में मुसलमान लिखिए और मज़हब के कॉलम में इस्लाम।”
मजहब के कॉलम में इस्लाम लिखना तो ठीक है, लेकिन जाति के कॉलम में हम अपनी जातियाँ ही लिखेंगे — जैसे हम जुलाहा हैं, मंसूरी हैं, रंगरेज़ हैं, दर्जी हैं, कुरैशी हैं, भटियारा हैं, नलबंद हैं, मल्लाह हैं, धोबी हैं, राइन हैं, दफाली हैं और तमाम ऐसी पसमांदा जातियाँ हैं जिनकी सही-सही पहचान होनी ज़रूरी है। हम खुद अभी से लोगों से अपील कर रहे हैं कि अपनी जाति को दर्ज कराएं, क्योंकि जातिगत जनगणना हमारे हक़ और प्रतिनिधित्व की बुनियाद बनेगी। दूसरी ओर जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, उनका डर ये है कि अगर जाति के आंकड़े सामने आ गए तो सच्ची तस्वीर सामने आ जाएगी कि किसकी कितनी संख्या है, सामाजिक-आर्थिक हालात कैसे हैं? इससे सरकारों पर दबाव पड़ेगा कि वो पसमांदा तबकों को ज़्यादा टिकट दें, उन्हें राजनीति में ज़्यादा भागीदारी मिले, आरक्षण मिले और विकास योजनाओं में प्राथमिकता दी जाए। अब तक जातिगत जनगणना न होने के चलते इन तबकों को बराबरी नहीं मिल पाई है। सुप्रीम कोर्ट और कई हाई कोर्ट के फैसले भी यही कहते हैं कि बिना सही आंकड़ों के सामाजिक न्याय अधूरा है. इसलिए जातिगत जनगणना बेहद ज़रूरी है।
सवाल- सच्चर कमेटी ने मुस्लिम समाज को एक पिछड़ा वर्ग माना था और आरक्षण की सिफारिश की थी, लेकिन समाजवादी विचारधारा के कुछ नेता जैसे के.सी. त्यागी कहते हैं कि आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जातीय पिछड़ेपन के आधार पर मिलना चाहिए। इस पर आपकी क्या राय है?
जवाब- देखिए, कौन क्या कहता है, उस पर जाने की ज़रूरत नहीं। के.सी. त्यागी क्या कहेंगे? हम खुद 12 साल सांसद रहे हैं, 25 साल पत्रकारिता की है और पसमांदा आंदोलन की बुनियाद हमने ही रखी है। ‘पसमांदा’ शब्द को हमने चलाया है। हमारा संघर्ष ज़मीन से जुड़ा हुआ है। हमारी पीड़ा हमारी अपनी है — कोई बाहर वाला क्या समझेगा? अब बात संविधान की करें तो उसमें साफ लिखा है कि आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है न कि मज़हब या आर्थिक स्थिति। संविधान में कहीं ‘आर्थिक रूप से गरीब’ शब्द नहीं है। आरक्षण केवल उन्हें मिलेगा जो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं यानी जिनकी जातियों को सदियों से नीचा माना गया, जिन्हें बराबरी का दर्जा नहीं मिला, जिन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया। हम खुद भी यही कहते हैं कि आरक्षण मज़हब के आधार पर नहीं मिल सकता, न ही मिलना चाहिए। सभी मुसलमान पिछड़े नहीं हैं ठीक वैसे ही जैसे सभी हिंदू या सभी सिख भी पिछड़े नहीं हैं। जो भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा है चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो या सिख उसे ही आरक्षण मिलना चाहिए। यही संवैधानिक व्यवस्था है। जातिगत जनगणना इसलिए ज़रूरी है ताकि यह साफ हो सके कि किस तबके की स्थिति क्या है। सच्चर कमेटी ने हालात का एक्स-रे किया, लेकिन इलाज के लिए आंकड़े चाहिए और वही जातिगत जनगणना दे सकती है।
सवाल- कुछ लोगों का मानना है कि मुस्लिम समाज में जातियों की गिनती से आंतरिक संघर्ष बढ़ सकता है और जो एकजुटता अभी तक दिखती रही है. वह टूट सकती है। आप इस आशंका को किस तरह से देखते हैं?
जवाब- जाति की गिनती कोई नई बात नहीं है। 1931 में भी जनगणना में जातियों की गिनती हुई थी, 1941 में भी हुई तब कोई सामाजिक संघर्ष नहीं हुआ न ही समाज टूटा। यही बात हिंदू समाज के संदर्भ में भी कही जाती थी, लेकिन जब मंडल आयोग लागू हुआ तब थोड़े समय के लिए विरोध जरूर हुआ, लेकिन वह जल्द ही थम गया। जिन तबकों को उठना था, वे उठे और सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम बढ़ा।
अभी हाल ही में बिहार में 2022-23 में जाति आधारित सर्वे हुआ, जो काफी सफल रहा। उसमें भी किसी तरह की अशांति या समाजिक टूट-फूट देखने को नहीं मिली। इसलिए यह डर फैलाना कि जाति की गिनती से समाज बिखर जाएगा, पूरी तरह से बेबुनियाद है। असल में जातिगत जनगणना से डर उन्हें लगता है जो वेस्टेड इंटरेस्ट रखते हैं चाहे वे हिंदू समाज में हों या मुस्लिम समाज में। ये वे लोग हैं जो दशकों से सत्ता और नौकरियों की मलाई खा रहे हैं। उन्हें डर है कि जब हकीकत सामने आएगी तो उन्हें अपना विशेषाधिकार छोड़ना पड़ेगा, और वंचित तबकों को उनका हक़ मिलेगा। इसलिए हम कहते हैं कि जातिगत गिनती सामाजिक न्याय की दिशा में ज़रूरी कदम है, इससे न समाज टूटेगा, न एकजुटता खत्म होगी बल्कि सच्ची बराबरी और प्रतिनिधित्व की नींव रखी जाएगी।
सवाल- अक्सर कहा जाता है कि इस्लाम में जातिवाद नहीं है, लेकिन कुछ लोग मानते हैं कि मुसलमानों के बीच मौजूद जातीय भेदभाव इस्लाम का नहीं, बल्कि बाहरी असर का नतीजा है। जबकि कुछ अन्य मानते हैं कि इस्लाम में भी जातिगत भेदभाव मौजूद है। आप क्या मानते हैं जातिवाद मुसलमानों में है या इस्लाम में भी?
जवाब- हम शुरू से कहते आए हैं कि इस्लाम के मूल सिद्धांतों में जातिवाद की कोई जगह नहीं है। चाहे वह कुरान हो या हदीस, कहीं भी किसी इंसान को जाति, रंग, नस्ल या कबीले के आधार पर ऊँचा-नीचा नहीं माना गया है। पैग़म्बर मोहम्मद साहब का अंतिम उपदेश हज्जतुल विदा इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि न किसी गोरे को काले पर कोई श्रेष्ठता है, न काले को गोरे पर, न अरबी को अज़मी (ग़ैर-अरबी) पर। इस्लाम में श्रेष्ठता केवल तक़वा यानी अल्लाह का डर रखने, इंसाफपसंदी, ईमानदारी और परोपकार के आधार पर तय होती है जाति के आधार पर नहीं।
लेकिन यह भी एक हकीकत है कि मुस्लिम समाज में जातीय भेदभाव मौजूद है और यह इस्लामी शिक्षाओं का नहीं, बल्कि सामाजिक और ऐतिहासिक प्रभावों का नतीजा है। यह बीमारी सदियों से चली आ रही है और अब इसे नकारने से कोई फायदा नहीं है। मुसलमानों में भी वे सभी जातियाँ मौजूद हैं जो हिंदू समाज में हैं अगड़े, पिछड़े, OBC, EBC, आदिवासी, सब। हमारे पसमांदा आंदोलन का असर देखिए जो लोग पहले इस आंदोलन का विरोध करते थे, उन्होंने भी अब इसे स्वीकार करना शुरू कर दिया है। पिछले साल जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे संगठनों ने भी रामलीला मैदान में प्रस्ताव पास कर यह माना कि पसमांदा मुसलमानों को उनका हक़ मिलना चाहिए। उन्होंने यह भी माँग की कि जिस तरह हिंदू दलितों को आरक्षण और सहूलतें मिलती हैं, वैसे ही मुस्लिम दलितों को भी मिलनी चाहिए। इसलिए हम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह जातिवाद मुस्लिम समाज को अंदर से दीमक की तरह खोखला कर रहा है। इसे मानना और इसके खिलाफ खड़ा होना ज़रूरी है, क्योंकि इससे मुक्ति पाए बिना सच्चा सामाजिक न्याय और इस्लामी बराबरी मुमकिन नहीं।
सवाल- आपके अनुसार हिंदू समाज और मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद जातीय असमानताओं में बुनियादी अंतर क्या है?
जवाब – डिग्री का अंतर हो सकता है, लेकिन एक बात तो दोनों समाजों में समान है. जाति जन्म आधारित है। जैसे हिंदू समाज में व्यक्ति जिस जाति में पैदा होता है, उसे जीवनभर वही जाति मिलती है, वैसे ही मुस्लिम समाज में भी जो जिस जाति में जन्म लेता है. वह उसी जाति का कहलाता है। मुस्लिम समाज में कुछ लोग खुद को सैय्यद, शेख, पठान, मलिक, मिर्जा कहते हैं. ये माने जाते हैं ऊँची जातियों में। वहीं कुछ लोग अंसारी, मंसूरी, दरज़ी, धोबी, नाई, हलालखोर, पमरिया, गद्देरी, भटियारा जैसे पेशों या परंपरागत जातियों से जुड़े होते हैं। सरकारी स्तर पर भी इन जातियों की सूची बनी हुई है और उन्हें मान्यता प्राप्त है। यानी कहने को मुस्लिम समाज धर्म के आधार पर बराबरी की बात करता है, लेकिन व्यवहार में जातीय भेदभाव और असमानता आज भी मौजूद है।
सवाल – प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा और आरएसएस की ओर से पसमांदा मुसलमानों के प्रति हालिया प्यार को आप सच्ची हमदर्दी मानते हैं या कोई राजनीतिक मजबूरी?
जवाब – यह पूरी तरह से छल, कपट, धोखा और प्रपंच है। इसमें न तो कोई सच्ची हमदर्दी है, न ईमानदारी। पसमांदा मुसलमानों या किसी भी मजहब के लोगों को इस छलावे में नहीं आना चाहिए।हमने खुद एक लंबा पत्र लिखा था जो कई अखबारों में छपा था। जिसमें साफ तौर पर कहा गया कि भाजपा पसमांदा शब्द का इस्तेमाल तो कर रही है, लेकिन शब्द चुराने से नीयत साफ नहीं हो जाती। सिर्फ नारे लगाने या एनजीओ बनाकर पसमांदा समाज के नाम पर फंडिंग करके लोगों को गुमराह करना असली मदद नहीं है।
आज जिन लोगों ने पसमांदा के नाम पर संगठन खड़े किए हैं, उनमें से कई भाजपा के करीब हैं और हर मुद्दे पर भाजपा का समर्थन करते हैं – चाहे वो वक्फ एक्ट में बदलाव हो या कृष्ण आयोग जैसे मामलों में सरकार को समर्थन देना हो। यह सब लोभ, लालच और स्वार्थ की राजनीति है और भाजपा इसी को बढ़ावा दे रही है। अगर वाकई सरकार की नीयत साफ होती तो सबसे पहले मॉब लिंचिंग, गोरक्षा के नाम पर हिंसा और बुलडोजर राजनीति पर रोक लगाई जाती। कौन इस बुलडोजर की मार झेलता है? बड़े-बड़े महलों में रहने वाले नहीं, बल्कि गरीब और फुटपाथ पर रहने वाले मुसलमान। इसलिए पसमांदा समाज को इन दिखावटी हमदर्दियों के झांसे में नहीं आना चाहिए।
सवाल – आपके अनुसार जातिगत जनगणना का बिहार के आगामी विधानसभा चुनाव (जो इसी साल होने वाले हैं) और देश की वैचारिक राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है?
ज़वाब – देखिए, बिहार में जातिगत जनगणना हो चुकी है।थोड़ी-बहुत कमियाँ हर प्रक्रिया में रह जाती हैं, यह हम भी मानते हैं, लेकिन मोटे तौर पर एक महत्वपूर्ण काम पूरा हो गया है। इसमें कुछ अहम जानकारियाँ नहीं आई हैं जैसे कि जमीन का स्वामित्व, बड़े अफसरों की सामाजिक पृष्ठभूमि और प्राइवेट सेक्टर में सामाजिक प्रतिनिधित्व का आंकड़ा नहीं आया। इसलिए हम कहते हैं कि जब राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना हो तो उसमें इन सब बातों का अलग से कॉलम बने और डाटा विस्तार से इकट्ठा किया जाए। बिहार की राजनीति में तो पिछड़ों और दलितों का झुकाव प्रमुख रहा है। इसीलिए हम INDIA गठबंधन का समर्थन कर रहे हैं, क्योंकि इस गठबंधन के अधिकतर दल शुरू से जातिगत जनगणना की मांग करते रहे हैं। जो कांग्रेस पहले इस मुद्दे पर पीछे रही, वो भी अब राहुल गांधी जी के नेतृत्व में सबसे आगे आ चुकी है। आपको याद होगा एक केंद्रीय मंत्री ने राहुल गांधी को लेकर अपमानजनक टिप्पणी की थी कि “जिन्हें अपनी जाति का पता नहीं, वे जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं” – तब राहुल जी ने बहुत सालीन और दमदार जवाब दिया। उन्होंने संसद में साफ कहा कि जो लोग जातिगत जनगणना की मांग करते हैं, उन्हें हमेशा गालियाँ मिली हैं, लेकिन हम इसी संसद से यह कानून पास कराकर रहेंगे। और अंततः सरकार को दबाव में आकर जातिगत जनगणना की घोषणा करनी पड़ी।
इसका सीधा असर बिहार के आगामी चुनाव पर तो पड़ेगा ही, साथ ही देश की वैचारिक राजनीति में भी नए ध्रुवीकरण का आधार बनेगा. जहां वंचित तबकों की भागीदारी और हकदारी को केंद्र में लाया जाएगा।
सवाल – बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े आ चुके हैं। आप यहां की पार्टियों को क्या संदेश देना चाहेंगे. और इन आंकड़ों के आधार पर वंचित तबकों को किस तरह की राजनीतिक हिस्सेदारी मिलनी चाहिए?
जवाब – हमें सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि हर स्तर पर—सरकारी नौकरियों में, पुलिस में और अन्य महत्वपूर्ण संस्थानों में बराबरी की हिस्सेदारी चाहिए। हम किसी के साथ भेदभाव नहीं चाहते, लेकिन यह भी साफ है कि जिसकी जितनी आबादी है. उसे उतनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। यह बात संतोषजनक है कि आज देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी जी इस मुद्दे को मजबूती से उठा रहे हैं। हमें उम्मीद है कि इस बार बिहार में सभी प्रमुख पार्टियां राजद, वामपंथी दल, कांग्रेस और अन्य जो भी INDIA गठबंधन में शामिल हों वंचित तबकों की जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाएंगे। यह सिर्फ नारा देने की बात नहीं है, यह सामाजिक न्याय और लोकतंत्र की असली परीक्षा है। अब वक्त आ गया है कि आंकड़ों के आधार पर नीतियों और निर्णयों में पारदर्शिता और समानता लाई जाए।
सवाल – कुछ लोगों का कहना है कि पसमांदा समाज की जो लड़ाई आप लंबे समय से लीड कर रहे हैं, उसमें पसमांदा मुसलमानों की कुछ जातियाँ जैसे भांट, नट आदि पीछे छूट रही हैं. यहां पर भी तो एक क्लास बन रहा है?
जवाब – हमारी लड़ाई की शुरुआत से ही यह स्पष्ट रहा है कि सबसे हाशिए पर मौजूद जातियों को आवाज दी जाए। हमारा जो मेडेन स्पीच (संसद में पहला भाषण) था, वो इन्हीं जातियों पर केंद्रित था जैसे बक्खो, पमरिया, भटियारा, गद्देरी, हलालखोर, दफाली, चीक, कसाई और अन्य छोटी-छोटी जातियाँ जिनकी संख्या कम है और जिन्हें कोई मंच नहीं देता। आज इन जातियों की मांग पर एक राष्ट्रीय सहमति बन चुकी है। यह पसमांदा आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि अब कोई भी मुस्लिम अगड़ी जातियों का संगठन इन मांगों का विरोध करने की हिम्मत नहीं करता। हम साफ-साफ और ठोक कर कहते हैं कि ये जातियाँ भी बराबर की हकदार हैं, और उनके बिना पसमांदा आंदोलन अधूरा है।
इसलिए हम लगातार सरकार से यह माँग करते रहे हैं कि इन सबसे वंचित जातियों को पहचान दे, नीति बनाकर उन्हें सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हिस्सेदारी दी जाए।
सवाल – जातिगत जनगणना को लेकर आप मुस्लिम समाज और उसकी लीडरशिप को क्या संदेश देना चाहेंगे?
जवाब– हमारा मुस्लिम समाज और उसकी लीडरशिप से साफ़ संदेश है कि जातिगत जनगणना एक ऐतिहासिक अवसर है, इसे गंभीरता से लिया जाए। राष्ट्रीय स्तर पर जब जाति आधारित जनगणना हो रही है तो हर व्यक्ति को चाहिए कि वह धर्म के कॉलम में ‘इस्लाम’ और जाति के कॉलम में अपनी वास्तविक जाति दर्ज करवाए। कुछ लोग गलत प्रचार फैला रहे हैं कि मुसलमानों को जाति के कॉलम में सिर्फ ‘मुसलमान’ लिखवाना चाहिए। हम साफ़ करना चाहते हैं कि धर्म और जाति दो अलग चीज़ें हैं—धर्म इस्लाम है, लेकिन जाति का अस्तित्व मुस्लिम समाज में भी वास्तविक और सामाजिक सच्चाई है और इसे दर्ज कराना जरूरी है।
हम 2009 से इस अभियान में लगे हुए हैं, लेकिन अब जरूरत है कि हर राजनीतिक पार्टी, सामाजिक संगठन और जागरूक नागरिक इस मुद्दे को पूरी ताकत से उठाएं और समाज को सही जानकारी दें। जनगणना में गलत प्रवृत्तियाँ भी सामने आई हैं। उदाहरण के तौर पर कई छोटे समुदायों के लोग—जैसे मोमिन, मंसूरी, नाई, धोबी आदि अपने नाम के आगे ‘शेख’ जोड़कर खुद को ऊँची जाति के रूप में पेश करने की कोशिश करते हैं। इससे सच्चे आंकड़े छुप जाते हैं और नीतिगत फायदे उन्हीं को मिलते हैं जो पहले से बेहतर स्थिति में हैं। यह कोई नया मुद्दा नहीं है। सैय्यद शहाबुद्दीन साहब भी जिनसे कई बातों पर हमारे मतभेद थे, इस बात से सहमत थे कि ‘शेख’ बिरादरी में सबसे ज़्यादा लोग दूसरी जातियों से जाकर जुड़ते हैं, और दूसरा कि मुस्लिम समाज में लगभग 80% आबादी पसमांदा है। हम तो कहते हैं कि यह संख्या 85% या 90% तक है। इसलिए हमारी अपील है कि हर मुस्लिम नागरिक अपनी सही जाति दर्ज करवाए ताकि आने वाली नीतियों में असली वंचित तबकों को हक़ मिल सके।