इकरा अली
छात्रा: जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, दिल्ली
इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
भारत की ज़्यादातर आबादी गाँवों में रहती है, लेकिन वहाँ की स्वास्थ्य सेवाएँ कई गंभीर समस्याओं से जूझ रही हैं। अस्पतालों और क्लीनिकों में ज़रूरी सुविधाओं की कमी है, डॉक्टरों और नर्सों की भारी कमी है, और इलाज तक पहुँच भी सीमित है। “ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट 2021-22” के अनुसार, गाँवों में 3100 मरीजों पर सिर्फ़ एक अस्पताल का बिस्तर उपलब्ध है और विशेषज्ञ डॉक्टरों की संख्या भी बहुत कम है। सरकार ने इस स्थिति को सुधारने के लिए कई योजनाएँ चलाई हैं जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM), आयुष्मान भारत – प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PMJAY) और स्वच्छ भारत अभियान। इन योजनाओं से माँ और बच्चे के स्वास्थ्य में कुछ हद तक सुधार हुआ है, लेकिन अभी भी इन सेवाओं की पहुँच और उपयोग में बड़ा फर्क है। टेक्नोलॉजी जैसे टेलीमेडिसिन और डिजिटल हेल्थ प्लेटफॉर्म गाँवों और शहरों के बीच स्वास्थ्य सेवाओं के अंतर को कम कर सकते हैं, लेकिन अभी भी डिजिटल सुविधाओं की कमी और ढाँचे की समस्याएँ इनका पूरा फायदा उठाने में रुकावट बनी हुई हैं। कोविड-19 महामारी के समय इन खामियों का और भी ज़्यादा पता चला, जिससे यह ज़रूरी हो गया कि सरकार ग्रामीण स्वास्थ्य पर और ज़्यादा खर्च करे, सुविधाओं की गुणवत्ता बढ़ाए, लोगों की भागीदारी को मज़बूत करे और एक ऐसा स्वास्थ्य सिस्टम बनाए जो सबको जोड़ सके।
भारत की 65% से ज़्यादा आबादी गाँवों में रहती है, इसलिए गाँवों की स्वास्थ्य सुविधाएँ देश के विकास और लोगों की सेहत के लिए बहुत ज़रूरी हैं। गाँवों में रहने वाले लोग देश की सामाजिक और आर्थिक ताकत की नींव हैं, और अगर उनकी सेहत ठीक नहीं होगी तो देश की तरक्की भी रुक सकती है। लेकिन अभी के हालात बहुत खराब हैं। ग्रामीण इलाकों की स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत पिछड़ी हुई हैं और इनमें तुरंत सुधार की ज़रूरत है। एक अखबार ‘जनसत्ता’ में लिखा गया था कि “असली भारत गांवों में बसता है”, लेकिन जब हम गाँवों की खराब स्वास्थ्य व्यवस्था को देखते हैं, तो ये बात सच्चाई से बहुत दूर लगती है। अगर इतनी बड़ी आबादी गाँवों में है और उन्हें ठीक से इलाज नहीं मिल रहा है, तो ये सिर्फ एक छोटी समस्या नहीं, बल्कि पूरे देश की सेहत के लिए एक बड़ी चिंता है। इसका मतलब है कि देश का विकास रुक सकता है अगर गाँवों में रहने वाले लोगों को अच्छा इलाज न मिले। इससे पता चलता है कि हमारी व्यवस्था लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने में असफल रही है और इससे शहर और गाँव के बीच का फर्क और बढ़ सकता है। इस रिपोर्ट में गाँवों की स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी कई मुश्किलों को समझाने की कोशिश की गई है, साथ ही सरकार की योजनाओं का भी जिक्र किया गया है कि उन्होंने कितना काम किया है और कहाँ सुधार की ज़रूरत है। यह जानकारी सरकारी रिपोर्ट जैसे “ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट 2021-22”, प्रेस सूचना ब्यूरो से ली गई है । ग्रामीण भारत में इलाज की व्यवस्था उप-केंद्र (SC), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (CHC) के एक नेटवर्क पर टिकी हुई है। ये केंद्र गाँवों में लोगों को शुरुआती इलाज देने के लिए बनाए गए हैं। मार्च 2022 तक गाँवों में 1,57,935 उप-केंद्र, 24,935 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 5,480 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र काम कर रहे थे। इनका मकसद तय जनसंख्या को इलाज देना था, लेकिन अब ये केंद्र अपनी क्षमता से कहीं ज़्यादा लोगों का इलाज कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, एक उप-केंद्र जहाँ 3,000-5,000 लोगों को देखना चाहिए, वह औसतन 5,691 लोगों को देख रहा है; इसी तरह PHC और CHC भी बहुत ज़्यादा भीड़ झेल रहे हैं ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी रिपोर्ट 2021-22” बताती है कि CHC यानी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में गंभीर मरीज़ों के इलाज के लिए ज़रूरी सुविधाओं की भारी कमी है। इसका मतलब सिर्फ इतना नहीं है कि वहाँ अस्पताल हैं, बल्कि यह भी है कि वहाँ सही से इलाज हो ही नहीं पा रहा है, क्योंकि न तो ज़रूरी संसाधन हैं, न स्टाफ और न ही अच्छा रखरखाव। एक और बड़ी चिंता की बात यह है कि सिर्फ 13% PHC ही ऐसे हैं जो सरकारी मानकों के अनुसार ठीक तरह से काम कर रहे हैं। इससे साफ होता है कि सरकारी खर्च तो हो रहा है, लेकिन अगर स्टाफ, सफाई, बिजली-पानी जैसी ज़रूरी चीज़ें न हों तो अस्पताल केवल नाम के रह जाते हैं। गाँवों में इलाज के लिए बिस्तरों की हालत भी काफी खराब है। वहाँ औसतन 3,100 मरीजों पर सिर्फ़ एक बिस्तर है, जो चीन जैसे देशों से बहुत पीछे है। पूरे देश में हर 1000 लोगों पर सिर्फ़ 0.9 बिस्तर है, और इनमें से केवल 30% बिस्तर ही गाँवों में हैं। साथ ही, विशेषज्ञ डॉक्टरों की भी बहुत बड़ी कमी है। गाँवों में 83% सर्जन, 81.6% बाल रोग विशेषज्ञ, 79.1% फिजिशियन और 72.2% स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो CHC में 79.5% विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी है। ये सारी बातें दिखाती हैं कि गाँवों में इलाज की ज़रूरतें बहुत ज़्यादा हैं लेकिन सुविधाएँ बहुत कम। गाँवों में इलाज की बुनियादी सुविधाओं की हालत भी बहुत चिंता की बात है। कई उप-केंद्रों में ज़रूरी चीज़ें जैसे पानी और बिजली तक ठीक से उपलब्ध नहीं हैं। रिपोर्ट के अनुसार, करीब 14.7% उप-केंद्रों में नियमित पानी की सुविधा नहीं है और 28.4% में बिजली की आपूर्ति पूरी नहीं हो पाती। बिहार जैसे राज्य में हालात और भी खराब हैं, जहाँ 31% स्वास्थ्य केंद्रों में न पानी है और न ही बिजली। ये सब “छुपी हुई समस्या” की तरह हैं, जो दिखती नहीं लेकिन असर बहुत बड़ा डालती हैं। जब अस्पताल में पानी और बिजली जैसी जरूरी चीज़ें नहीं होंगी, तो न सिर्फ मरीज़ों का इलाज प्रभावित होता है, बल्कि वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों का मनोबल भी गिर जाता है।
स्वच्छता की हालत भी बेहद खराब है। जहाँ साफ-सफाई नहीं होगी, वहाँ संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ जाता है। अगर अस्पताल ही संक्रमण फैलाने का कारण बन जाए तो लोगों की जान बचाने के बजाय और ज़्यादा बीमारियाँ फैल सकती हैं। गाँवों में कचरा और गंदे पानी की निकासी का भी बहुत खराब हाल है – 20% गाँवों में नाली की व्यवस्था नहीं है और 43% गाँवों में कचरे को सही तरीके से नष्ट करने का कोई साधन नहीं है। इसका मतलब ये है कि इलाज की सुविधा सिर्फ वहाँ पहुँचने भर की बात नहीं है, बल्कि वहाँ मिलने वाली देखभाल कितनी सुरक्षित और प्रभावशाली है, ये भी उतना ही ज़रूरी है। जब सरकारी अस्पताल ऐसी हालत में होते हैं, तो लोग मजबूरी में महंगे निजी अस्पतालों या झोला छाप डॉक्टरों की ओर रुख कर लेते हैं, जिससे आर्थिक बोझ और बढ़ जाता है। सरकार ने नियम तो बनाए हैं कि PHC और CHC में एम्बुलेंस, जनरेटर, फ्रीजर जैसी सुविधाएँ होंगी, लेकिन ज़मीन पर ये चीज़ें या तो उपलब्ध नहीं हैं या काम नहीं करतीं। इसके अलावा, एक और बड़ी परेशानी यह है कि इन अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHCs) में 83.2% सर्जन, 81.6% बच्चों के डॉक्टर, 79.1% फिजिशियन और 74.2% स्त्री रोग विशेषज्ञों की कमी है। कुल मिलाकर, लगभग 79.5% विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं हैं। इसकी वजह से गाँवों में रहने वाले लोगों को ज़रूरी और समय पर इलाज नहीं मिल पाता, और उन्हें या तो लंबी दूरी तय करनी पड़ती है या फिर अधूरे इलाज से ही काम चलाना पड़ता है। गाँवों में डॉक्टरों की संख्या की हालत भी काफी चिंताजनक है। जहाँ विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) हर 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर की सिफारिश करता है, वहीं ग्रामीण भारत में औसतन 10,926 लोगों पर सिर्फ़ एक डॉक्टर है। ये बहुत बड़ा अंतर है, जिससे गाँवों में रहने वाले लोगों को इलाज और सलाह समय पर नहीं मिल पाती। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs) में भी एलोपैथिक डॉक्टरों की 3.1% कमी है। कुछ राज्यों में तो यह स्थिति और भी खराब है – जैसे ओडिशा में 298, छत्तीसगढ़ में 279 और कर्नाटक में 60 डॉक्टरों की कमी है। मध्य प्रदेश के 1,440 PHCs में 1,946 डॉक्टरों की ज़रूरत थी, लेकिन उनमें से 542 पद खाली पड़े हैं। सिर्फ डॉक्टर ही नहीं, सहायक नर्स मिडवाइफ (ANM) की भी 3.5% की कमी है। शहरों में भी अस्पतालों में रेडियोग्राफर, फार्मासिस्ट, लैब टेक्नीशियन और नर्सों के बहुत सारे पद खाली हैं। एक और बड़ी परेशानी ये है कि जो सरकारी डॉक्टर गाँवों के लिए नियुक्त किए जाते हैं, वे वहाँ जाते ही नहीं हैं। कई बार वो शहर में ही अपना क्लिनिक खोल लेते हैं और गाँवों की पोस्टिंग को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। इससे ये साफ होता है कि समस्या सिर्फ डॉक्टरों की संख्या की नहीं है, बल्कि जो डॉक्टर सरकार की तरफ से ट्रेनिंग और पढ़ाई के बाद तैयार होते हैं, वे अपने कर्तव्यों से भटक कर निजी प्रैक्टिस की ओर चले जाते हैं। इसे ही “ब्रेन ड्रेन” कहा जा सकता है – यानी कुशल लोग गाँवों की बजाय शहरों में काम करना पसंद करते हैं। इसका मतलब है कि केवल ज़्यादा डॉक्टर तैयार कर देने से बात नहीं बनेगी, बल्कि ज़रूरी है कि सरकार ऐसी नीति बनाए जिससे डॉक्टरों को गाँवों में काम करना सुविधाजनक और फायदेमंद लगे। इसके लिए उन्हें बेहतर वेतन, रहने की अच्छी व्यवस्था, काम का अच्छा माहौल और ज़िम्मेदारी तय करने वाली व्यवस्था की ज़रूरत है। वरना जो भी नए डॉक्टर बनेंगे, वे भी सिर्फ़ शहरों के लिए ही काम करना चाहेंगे। डॉक्टर आमतौर पर शहरी इलाकों को इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि वहाँ करियर की ज़्यादा संभावनाएँ, अच्छी ज़िंदगी और ज़्यादा संसाधन होते हैं। गाँवों में न तो अच्छी सुविधाएँ होती हैं और न ही उन्हें आगे बढ़ने के मौके। इसके अलावा, मेडिकल कॉलेज भी ज़्यादातर शहरों में ही होते हैं, जिससे गाँवों में प्रशिक्षित मेडिकल स्टाफ की भारी कमी बनी रहती है। दूर-दराज़ के इलाकों में डॉक्टरों को बनाए रखना इसलिए मुश्किल हो जाता है क्योंकि वहाँ काम करने और रहने की अच्छी व्यवस्था नहीं होती। सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारियों (सीएचओ) और संविदा नर्सों के बड़े पैमाने पर तबादलों के चलते उप स्वास्थ्य केंद्रों और हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर्स पर कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ है । छतरपुर जिले में 30 सीएचओ का तबादला किया गया, जबकि केवल 4 नए सीएचओ को भेजा गया, जिससे लगभग 20 उप स्वास्थ्य केंद्र खाली हो गए । यह सीएचओ तबादलों का “गुणक प्रभाव” है। सीएचओ प्राथमिक देखभाल के लिए महत्वपूर्ण हैं, जिसमें ओपीडी संचालन, दवाओं का वितरण, मातृ-शिशु स्वास्थ्य और सामुदायिक जागरूकता शामिल है। उनकी अनुपस्थिति मरीजों को निजी क्लीनिकों या जिला अस्पतालों की ओर रुख करने के लिए मजबूर करती है । यह केवल संख्यात्मक कमी से परे मानव संसाधन प्रबंधन में एक प्रणालीगत मुद्दे को उजागर करता है। खराब स्थानांतरण नीतियां ग्रामीण क्षेत्रों में स्टाफिंग के प्रयासों को विफल कर सकती हैं, जिससे तत्काल सेवा ठप हो सकती है और उच्च-स्तरीय सुविधाओं या निजी स्वास्थ्य सेवा पर बोझ बढ़ सकता है, जिससे ग्रामीण आबादी के लिए जेब से होने वाला खर्च (OOPE) बढ़ सकता है । यह स्थिर, दीर्घकालिक ग्रामीण पोस्टिंग और मजबूत मानव संसाधन योजना की आवश्यकता को रेखांकित करता है। ग्रामीण भारत में लोगों को इलाज तक पहुँचने में कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ी समस्या है आने-जाने का साधन और सड़कें ठीक न होना। देश की 65% से ज़्यादा आबादी गाँवों में रहती है, लेकिन वहाँ अच्छे अस्पताल, डॉक्टर और सही ट्रांसपोर्ट नहीं है। अगर किसी को इमरजेंसी में अस्पताल जाना हो, तो सही सड़कें और एम्बुलेंस की सुविधा बहुत जरूरी होती है। अच्छे रास्ते न होने के कारण टीकाकरण जैसी ज़रूरी सेवाएँ भी समय पर नहीं पहुँच पातीं। इससे लोगों का इलाज देर से होता है और उनकी तबीयत और बिगड़ जाती है। दूसरी बड़ी परेशानी है इलाज का खर्च। आज भी बहुत सारे ग्रामीण परिवार इलाज का खर्च अपनी जेब से उठाते हैं। “राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा 2019-20” के अनुसार, देश में लगभग 47% स्वास्थ्य खर्च आम आदमी को खुद करना पड़ता है। कई बार लोगों को इसके लिए कर्ज लेना पड़ता है या ज़रूरी चीज़ें बेचनी पड़ती हैं। ओडिशा जैसे राज्य में 40% परिवारों को इलाज के बाद कर्ज लेना पड़ा। इससे गरीब और गरीब बनते जा रहे हैं। बीमा की सुविधा भी सभी को नहीं मिलती केवल आधे ग्रामीण परिवारों के पास ही सरकारी स्वास्थ्य बीमा है और 34% के पास तो कोई बीमा नहीं है।
तीसरी समस्या है दवाइयों और टेस्ट की कमी। गाँवों में स्वास्थ्य केंद्रों में ज़रूरी दवाइयाँ और जांच की सुविधा नहीं होती। लोग कहते हैं कि न तो उन्हें सब्सिडी वाली सस्ती दवाइयाँ मिलती हैं और न ही पास में कोई जांच केंद्र है। ऐसे में अगर डॉक्टर मिल भी जाए, तो दवा या टेस्ट के बिना इलाज अधूरा रह जाता है। इससे बीमारियाँ बढ़ जाती हैं और इलाज का खर्च और ज्यादा हो जाता है। हालाँकि भारत ने मातृ मृत्यु दर (MMR) और शिशु मृत्यु दर (IMR) जैसे संकेतकों में काफी सुधार किया है, लेकिन गाँव और शहर के बीच का फर्क आज भी बना हुआ है। देश में MMR 97 पर आ गया है और IMR भी घटकर 28 रह गया है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में IMR अब भी 34 है और MMR भी शहरों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। यह साफ दिखाता है कि सरकार की योजनाओं का लाभ सब तक बराबर नहीं पहुँच रहा है। स्वच्छता की हालत भी ग्रामीण इलाकों में खराब है। केवल 70% ग्रामीण परिवारों को ही अच्छी टॉयलेट और सफाई की सुविधा मिलती है। 20% गाँवों में पानी की निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है और 43% गाँवों में कचरा फेंकने की वैज्ञानिक व्यवस्था नहीं है। इसके कारण बच्चों में दस्त, कीड़ों का संक्रमण और कुपोषण जैसी बीमारियाँ फैलती हैं। यह बताता है कि इलाज के साथ-साथ साफ पानी, सफाई और पोषण पर भी काम करना ज़रूरी है।
मलेरिया, टीबी, दस्त जैसी बीमारियाँ और मधुमेह, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियाँ अब गाँवों में भी आम हो गई हैं। 2021 में मलेरिया कम हुआ था, लेकिन 2022 और 2023 में फिर बढ़ गया, जो दिखाता है कि साफ-सफाई और पर्यावरण की स्थिति अभी भी चुनौती बनी हुई है। इसीलिए गाँवों के लिए केवल अस्पताल खोल देना ही काफी नहीं है, बल्कि शिक्षा, सफाई, ट्रांसपोर्ट, पोषण और स्वास्थ्य – सब पर मिलकर काम करना होगा।
(आर्टिकल का रिसर्च और दिए गए संदेश लेखक के हैं,संस्था का उस से सहमत होना ज़रूरी नहीं)