इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाके में फरवरी 2020 में हुए दंगों को लेकर दर्ज की गई कथित ‘बड़ी साज़िश’ मामले में अब चार्ज पर बहस दोबारा वहीं से शुरू होगी जहाँ यह रुकी थी। इस बदलाव की वजह है — अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (ASJ) समीर बाज़पेयी का कड़कड़डूमा कोर्ट में पुनः पदस्थापन।
इससे पहले, जज बाज़पेयी इस मामले की सुनवाई सितंबर 2023 से कर रहे थे और सात महीने की बहस के बाद उनका 30 मई, 2025 को तबादला साकेत कोर्ट कर दिया गया था। उनके स्थान पर लाए गए ASJ ललित कुमार ने जून के पहले सप्ताह में बहस शुरू कराने की प्रक्रिया दोबारा शुरू की, लेकिन अब दिल्ली हाईकोर्ट के प्रशासनिक आदेश के बाद बाज़पेयी को फिर से उसी कोर्ट में लौटा दिया गया है।
जज के अचानक तबादले से न केवल अदालत की कार्यवाही बाधित हुई, बल्कि कई अभियुक्तों की ज़मानत और लंबी हिरासत की स्थिति भी प्रभावित हुई। इनमें से कई अभियुक्त पिछले चार वर्षों से जमानत के बिना UAPA (गैरकानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम) के तहत जेल में बंद हैं।
मामले में चार्जशीट 17,000 पन्नों की है, और बहस का यह दौर सबसे निर्णायक माना जा रहा है क्योंकि अभियोजन और बचाव पक्ष — दोनों ने पहले ही अपने तर्कों की शुरुआत कर दी थी।
इस केस में 18 लोगों को अभियुक्त बनाया गया है, जिनमें छात्र नेता उमर खालिद, शरजील इमाम, पूर्व निगम पार्षद ताहिर हुसैन, सामाजिक कार्यकर्ता सफ़ूरा ज़रगर, गुल्फिशा फातिमा, आसिफ इक़बाल तनहा, मीरान हैदर, शिफ़ा-उर-रहमान और नताशा नरवाल जैसे नाम शामिल हैं।
कई अभियुक्तों को ज़मानत मिल चुकी है, परंतु अधिकतर अब भी कठोर UAPA प्रावधानों के तहत हिरासत में हैं। अभियुक्तों के वकीलों का कहना है कि इस मुक़दमे का उद्देश्य नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) के विरोध में उठी आवाज़ों को दबाना है।
अब जब कि ASJ समीर बाज़पेयी दोबारा मामले की सुनवाई करेंगे, यह उम्मीद की जा रही है कि चार्ज पर बहस जुलाई के पहले सप्ताह से फिर से शुरू होगी। अदालत ने सभी पक्षों को निर्देश दिए हैं कि वे अपना अदालती कैलेंडर जमा करें और यह तय करें कि किस क्रम में तर्क रखे जाएंगे।
विशेष लोक अभियोजक (SPP) अमित प्रसाद ने अदालत से निवेदन किया है कि बहस नियमित आधार पर दिन में 4 से 5 घंटे चले ताकि सुनवाई में अब और देरी न हो।
चार वर्षों से लंबित इस केस में कई अभियुक्त सिर्फ चार्ज तय होने का इंतज़ार करते हुए जेल में हैं, जो न्याय प्रणाली की जटिलता और UAPA जैसे क़ानून की कठोरता को उजागर करता है। अब जबकि बहस अपने पुराने मुकाम से आगे बढ़ेगी, सवाल यह है कि क्या न्याय सिर्फ होगा या होता हुआ दिखेगा भी।