डीपसीक एआई:हम कब तक कंज्यूमर रहेंगे?

चीन द्वारा डीपसीक एआई के लॉन्च के बाद एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि वैश्विक तकनीकी प्रतिस्पर्धा में जो देश अनुसंधान और इनोवेशन में आगे होगा, वही भविष्य का नेतृत्व करेगा। चीन के इस क़दम को चैट जीपीटी के विकल्प के रूप में देखा जा रहा हैं। इस क्षेत्र में अब तक अमेरिका और पश्चिमी देश ही आगे रहे हैं, लेकिन चीन अब अपनी मज़बूत उपस्थिति से दर्ज करा रहा है। आज का समय सूचना, संचार और तकनीक का है और जो इसमें जितना आगे है, विश्व में उसका प्रभुत्व उतना ही है।

तकनीकी वर्चस्व की दौड़ नई नहीं है। यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शुरू हुई थी। जब सोवियत संघ ने 1957 में पहला स्पेश मिशन लॉन्च किया, तो अमेरिका ने अपना मून मिशन लॉन्च कर इसका जवाब दिया। इस स्पर्धा ने विज्ञान और तकनीक को कई नए आयाम दिए।
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका तकनीकी रूप से एकमात्र महाशक्ति बन गया, लेकिन पिछले दो दशकों में चीन ने तेजी से इस क्षेत्र में निवेश किया है। आज चीन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, स्पेस रिसर्च, हाई-स्पीड ट्रेनों और सुपरकंप्यूटर तकनीक में अमेरिका को टक्कर दे रहा है। डीपसीक एआई इसका ताजा उदाहरण है।

लेकिन सवाल यह उठता है कि भारत इस दौड़ में कहां है?और हम केवल उपभोक्ता क्यों बने हुए हैं?
भारत और भारतीय उपमहाद्वीप आज भी तकनीक और इनोवेशन के क्षेत्र में दुनिया के सबसे बड़े कंज्यूमर्स में से एक है। इसका कारण ये है कि भारत में अनुसंधान एवं विकास पर जीडीपी का मात्र 0.7% खर्च होता है, जबकि चीन 2.4%, अमेरिका 3.1% खर्च करता है। यह स्पष्ट करता है कि भारत में वैज्ञानिक नवाचार और तकनीकी विकास को उतना महत्व नहीं दिया जा रहा, जितना अन्य देशों में।
भारत में 40,000 से अधिक उच्च शिक्षा संस्थान हैं, लेकिन इनमें से केवल 1% संस्थान उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। भारत के केवल 3 संस्थान ही शीर्ष 200 वैश्विक विश्वविद्यालयों में स्थान बना पाए हैं। विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी और शोध पर बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं देना हमारे विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता को कम कर रहा है।
भारत में रिसर्च और इनोवेशन में निजी क्षेत्र की भागीदारी केवल 36% है, जबकि अमेरिका और चीन में यह 70% से अधिक है। निजी कंपनियों की भागीदारी के बिना कोई भी देश अनुसंधान में आगे नहीं बढ़ सकता।

हर साल हजारों भारतीय वैज्ञानिक और इंजीनियर अमेरिका और यूरोप में नौकरी करने चले जाते हैं क्योंकि भारत में रिसर्च के लिए सुविधाएँ सीमित हैं।

आज भारत दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर बढ़ रहा है, लेकिन क्या यह पर्याप्त है? यदि भारत को तकनीकी महाशक्ति बनना है, तो हमें सिर्फ कंज्यूमर नहीं, बल्कि प्रोड्यूसर बनना होगा।
भारत के बहुत ही वलनरेबल एरिया में काम करने के बाद मैं ये कह सकता हूं कि हमारे यहां प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, बस उन्हें सही मंच देने की आवश्यकता है।
इसके लिए शिक्षा, अनुसंधान और इनोवेशन में बड़े पैमाने पर निवेश करना होगा। जब तक हम अपने वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, और छात्रों को सही अवसर नहीं देंगे, तब तक हम केवल अमेरिका, यूरोप और चीन के बनाए हुए उत्पादों और तकनीकों के उपभोक्ता बने रहेंगे।
विश्व गुरु बनने के लिए सिर्फ कहने से कुछ नहीं होगा, बल्कि करने से होगा। अगर भारत शिक्षा और अनुसंधान पर अधिक ध्यान देता है, तो निश्चित रूप से वह एक वैश्विक तकनीकी महाशक्ति बन सकता है। वरना, हम केवल उपभोक्ता ही बने रहेंगे।

(ये स्टोरी इंसाफ़ टाइम्स के कंटेंट एडिटर मुहम्मद फैज़ान ने लिखा है)

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