इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
उत्तराखंड के हरिद्वार जनपद में पिछले वर्ष संदिग्ध परिस्थिति में मौत के शिकार हुए 22 वर्षीय जिम ट्रेनर वसीम उर्फ मोनू के मामले में नया मोड़ आ गया है। स्थानीय अदालत ने शनिवार को सख़्त रुख़ अपनाते हुए छह पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ धारा 302 (हत्या) के तहत एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया है। मृतक के परिजनों का आरोप है कि वसीम की मौत कोई हादसा नहीं, बल्कि पुलिस द्वारा की गई सुनियोजित हत्या थी।
मामला मई 2024 का है जब रुड़की के लंढौरा थाना क्षेत्र स्थित एक तालाब में वसीम का शव मिला था। पुलिस ने दावा किया था कि वसीम गोकशी के शक में भागने के दौरान तालाब में गिरा और डूबने से उसकी मौत हुई। वहीं, परिवार और स्थानीय लोगों ने आरोप लगाया था कि पुलिसकर्मियों ने उसे पीट-पीटकर तालाब में फेंक दिया।
मृतक के चचेरे भाई अलाउद्दीन ने कोर्ट में दिए अपने बयान में कहा “पुलिसकर्मियों ने वसीम से उसका नाम पूछा, और मुस्लिम पहचान पाते ही बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। उसे तालाब में धकेल दिया और बाहर निकलने नहीं दिया।”
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कारण ‘डूबना’ बताया गया था, लेकिन शरीर पर गंभीर चोटों के निशान भी पाए गए थे। इसके साथ ही सीसीटीवी फुटेज में वसीम की स्कूटी और पीछा करते संदिग्ध दिखाई दिए, जिससे पुलिस के दावे पर सवाल खड़े हुए।
अदालत ने मृतक के परिजनों और गवाहों के बयानों, पोस्टमार्टम रिपोर्ट और उपलब्ध वीडियो साक्ष्यों को प्रथम दृष्टया गंभीर मानते हुए कहा कि इस मामले में निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच जरूरी है। कोर्ट ने लंढौरा थाने के छह पुलिसकर्मियों पर हत्या और साजिश रचने की धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश जारी किया।
मृतक के पिता ने कहा “हमें झूठे आरोप नहीं चाहिए, बस हमारे बेटे की हत्या करने वालों को सज़ा चाहिए। हमें डराया गया, धमकाया गया, लेकिन अब अदालत से उम्मीद है।”
परिवार ने उच्च स्तरीय सीबीआई जांच, ₹1 करोड़ का मुआवजा और दोषियों की त्वरित गिरफ्तारी की मांग की है।
घटना पर मानवाधिकार संगठन और मुस्लिम सामाजिक समूहों ने गहरा रोष जताते हुए इसे एक “सांप्रदायिक मानसिकता से प्रेरित क़त्ल” बताया है। ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरात और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) से स्वतः संज्ञान लेने की अपील की है!
वसीम की मौत ने पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। अदालत का यह आदेश न सिर्फ परिजनों के संघर्ष की जीत है, बल्कि यह संदेश भी कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं। अब देखने वाली बात होगी कि उत्तराखंड प्रशासन इस आदेश पर कितनी तत्परता और निष्पक्षता से कार्रवाई करता है।