कांशीराम: भारतीय दलित राजनीति के महानायक

इंसाफ़ टाइम्स डेस्क

“हम सत्ता की चाबी हासिल करेंगे और समाज के हर उस व्यक्ति को न्याय दिलाएंगे, जिसे सदियों से शोषित किया गया है।”

यह आह्वान था उस नेता का, जिसने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर भारत के बहुजन समाज – दलित, पिछड़ा और आदिवासियों के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह नेता थे कांशीराम, जिन्हें भारतीय दलित राजनीति का प्रणेता कहा जाता है।

कांशीराम का जन्म आज ही के दिन 1934 में पंजाब के रोपड़ जिले के एक दलित समुदाय रामदासिया (चमार) परिवार में हुआ था। उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से साइंस में ग्रेजुएशन किया और उसके बाद डिफेंस रिसर्च एंड डेवेलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (DRDO) में वैज्ञानिक के रूप में काम करने लगे। लेकिन वहां भी उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। यही अनुभव उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट बना और उन्होंने बहुजन समाज के अधिकारों की लड़ाई लड़ने का फैसला किया।

डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचारों से प्रेरित होकर कांशीराम ने महसूस किया कि दलितों और पिछड़े वर्गों की मुक्ति केवल सामाजिक आंदोलन से संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए राजनीतिक सत्ता पर अधिकार जरूरी है।
कांशीराम ने 1971 में ‘बामसेफ’ (Backward and Minority Communities Employees Federation) की स्थापना की। यह संगठन सरकारी कर्मचारियों और दलित बुद्धिजीवियों को बहुजन समाज के हित में संगठित करने पर केंद्रित था।
फिर 1981 में, कांशीराम ने ‘दलित शोषित समाज संघर्ष समिति’ (DS4) की स्थापना की। इसका नारा था –
“जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।”

1984 में, कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य दलित, पिछड़ा, आदिवासी और अल्पसंख्यक समाज को राजनीतिक रूप से जागरूक करना और सत्ता के केंद्र में लाना था।

कांशीराम ने दलित राजनीति को वोट बैंक की राजनीति से निकालकर सत्ता की राजनीति में तब्दील कर दिया। उनका मानना था कि सिर्फ वोट देने से समाज का भला नहीं होगा, बल्कि सत्ता की चाबी खुद बहुजन समाज को अपने हाथ में लेनी होगी।

कांशीराम ने उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बहुजन समाज को संगठित किया।
1995 में, उनकी शिष्या मायावती उत्तर प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं। यह कांशीराम के कुशल नेतृत्व और संगठन की ही देन थी कि BSP ने दलित राजनीति को हाशिए से उठाकर सत्ता के केंद्र तक पहुंचाया।
कांशीराम का नारा था:
“बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय”
उन्होंने दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को राजनीतिक रूप से शिक्षित और संगठित करने का काम किया। उनका मानना था कि जब तक बहुजन समाज शिक्षित और जागरूक नहीं होगा, तब तक वह अपने अधिकारों के लिए लड़ नहीं पाएगा।

9 अक्टूबर 2006 को कांशीराम का निधन हो गया।

कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने 1990 और 2000 के दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक मजबूत पकड़ बनाई। मायावती के नेतृत्व में BSP ने चार बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई।

लेकिन, कांशीराम के निधन के बाद BSP धीरे-धीरे अपनी मूल विचारधारा से भटकती चली गई।

2014 के लोकसभा चुनाव में BSP को एक भी सीट नहीं मिली। 2019 के लोकसभा चुनाव में BSP ने समाजवादी पार्टी (SP) के साथ गठबंधन किया और 10 सीटें जीतीं, लेकिनबाद में गठबंधन टूट गया।
2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में BSP को महज 1 सीट मिली, जो पार्टी के इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन था।
BSP का वोट बैंक दलित समाज से खिसककर अब अन्य दलों की ओर जा रहा है, खासकर बीजेपी और समाजवादी पार्टी की ओर।
पार्टी के इस प्रदर्शन का प्रमुख कारण कांशीराम जैसी विचारधारा का अभाव, दलित-मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग के साथ संवाद की कमी तथा पार्टी नेतृत्व का तानाशाही रवैया है।

कांशीराम ने भारतीय राजनीति में दलितों को हाशिए से उठाकर सत्ता के केंद्र में लाने का काम किया। उन्होंने बहुजन समाज को यह समझाया कि जब तक सत्ता की चाबी अपने हाथ में नहीं होगी, तब तक समाज का विकास संभव नहीं है।

हालांकि, आज BSP कमजोर हो चुकी है, लेकिन कांशीराम की विचारधारा आज भी समाज में जीवित है। आने वाले समय में, अगर कोई नया नेतृत्व कांशीराम के विचारों को आगे बढ़ाए, तो बहुजन आंदोलन को फिर से जीवित किया जा सकता है।

(ये स्टोरी मानू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष मुहम्मद फैजान ने लिखी है)

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