
इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
भारत के इतिहास में शाहिद आज़मी एक ऐसे नाम से दर्ज हैं जिन्होंने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और न्याय की राह में अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। शाहिद आज़मी एक ऐसे महान योद्धा थे, जिन्होंने बेगुनाहों को इंसाफ दिलाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उनकी जिंदगी संघर्षों से भरी थी, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कभी अन्याय के सामने घुटने नहीं टेके।
शाहिद आज़मी का जन्म 1977 में मुंबई के एक साधारण परिवार में हुआ था। उनकी युवावस्था कठिनाइयों से भरी रही। 1992 के मुंबई दंगों के दौरान उन्होंने अन्याय को करीब से देखा, जिसने उनके भीतर न्याय के लिए लड़ने की आग जला दी। हालांकि, युवावस्था में उन पर भी आतंकवाद से जुड़े झूठे आरोप लगे और उन्हें टाडा (TADA) कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। पाँच साल तक जेल में रहने के बाद, वह बरी हो गए।
जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने तय कर लिया कि वे उन निर्दोष लोगों की मदद करेंगे, जो झूठे मामलों में फँसाए जाते हैं। उन्होंने कानून की पढ़ाई की और वकील बने। उनका उद्देश्य उन बेगुनाहों को न्याय दिलाना था, जिन्हें आतंकवाद विरोधी कानूनों का गलत इस्तेमाल कर जेल में डाल दिया जाता था।
शाहिद आज़मी ने कई ऐसे मामलों की पैरवी की, जिनमें निर्दोष लोगों को आतंकवाद के झूठे आरोपों में फँसाया गया था। उन्होंने विशेष रूप से मकोका (MCOCA) और पोटा (POTA) जैसे कठोर कानूनों के तहत गिरफ्तार लोगों के मामलों को लड़ा। उनकी मेहनत और साहस का नतीजा था कि उन्होंने कई बेगुनाहों को रिहाई दिलाई।
उनकी निडरता और बेखौफ कानूनी लड़ाई कई लोगों को रास नहीं आई। 11 फरवरी 2010 को मुंबई में उनके ऑफिस में घुसकर कुछ लोगों ने उन पर गोलियाँ चला दीं और उनकी हत्या कर दी गई। उनकी शहादत भारत में न्याय की लड़ाई लड़ने वालों के लिए एक गहरा आघात थी।
शाहिद आज़मी का जीवन उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा है, जो न्याय और मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि न्याय की राह कठिन हो सकती है, लेकिन अगर इरादे मजबूत हों, तो सच्चाई की जीत अवश्य होती है। उनकी शहादत को भुलाया नहीं जा सकता, और वे हमेशा न्याय की लड़ाई लड़ने वालों के लिए एक मिसाल बने रहेंगे।