इंसाफ़ टाइम्स डेस्क
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2020 के दिल्ली दंगों से जुड़ी तथाकथित ‘बड़ी साज़िश’ मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के पूर्व छात्र नेताओं उमर खालिद और शरजील इमाम की जमानत याचिकाओं पर सुनवाई पूरी कर ली है। न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति शालिंदर कौर की खंडपीठ ने दोनों की याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रख लिया है।
दिल्ली पुलिस की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दोनों आरोपियों पर कड़े आरोप लगाते हुए कहा कि यह मामला देश को धार्मिक आधार पर बांटने की एक संगठित और सुनियोजित साज़िश का है।
सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल मेहता ने कोर्ट में कहा कि “उमर खालिद, शरजील इमाम और अन्य आरोपी व्हाट्सऐप ग्रुप्स के जरिए एक-दूसरे के संपर्क में थे और मिलकर देश को तोड़ने की योजना बना रहे थे। यह एक पैथोलॉजिकल षड्यंत्र था, न कि केवल प्रदर्शन या आंदोलन।”
उन्होंने यह भी कहा कि दंगों की तारीख और समय जानबूझकर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान चुना गया, जिससे भारत की वैश्विक छवि धूमिल की जा सके।
उमर खालिद और शरजील इमाम के अधिवक्ताओं ने अदालत को बताया कि “दोनों आरोपियों को लगभग 4 वर्षों से अधिक समय से न्यायिक हिरासत में रखा गया है।अब तक उनके खिलाफ कोई ठोस और प्रत्यक्ष प्रमाण पेश नहीं किया गया है। अन्य सह-आरोपियों को पहले ही जमानत दी जा चुकी है, ऐसे में इन आरोपियों को भी समान आधार पर राहत दी जानी चाहिए। आरोपियों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका दंगों में साबित नहीं हुई है।”
कोर्ट ने दोनों पक्षों की विस्तृत बहस के बाद कहा कि वह मामले में जल्द फैसला सुनाएगी। साथ ही, दोनों पक्षों को निर्देश दिया गया है कि वे तीन दिनों के भीतर लिखित तर्क अदालत में दाखिल करें।
फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध और समर्थन के बीच हुए दंगों में 53 लोगों की मौत हो गई थी और 700 से अधिक लोग घायल हुए थे। दिल्ली पुलिस का आरोप है कि यह दंगे पूर्व नियोजित और सुनियोजित साज़िश के तहत कराए गए थे। उमर खालिद, शरजील इमाम, गुलफिशा फातिमा, खालिद सैफी और अन्य आरोपियों पर UAPA और IPC की कई गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया है।
अब जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रख लिया है, तो इस बहुचर्चित मामले में सभी की नजरें अदालत के निर्णय पर टिकी हुई हैं। यह फैसला न केवल उमर खालिद और शरजील इमाम की किस्मत तय करेगा, बल्कि अभिव्यक्ति की आज़ादी, नागरिक अधिकारों और न्यायिक प्रक्रियाओं पर भी व्यापक असर डालेगा।