*मानवाधिकार खत्म करते एनकाउंटर और जेल*

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10 दिसम्बर

मानवाधिकार दिवस पर विशेष

एडवोकेट अन्सार इन्दौरी

पिछले कुछ समय में पुलिस द्वारा किए गए कई एनकाउंटरों पर गंभीर सवाल खड़े किए गए हैं। इनमें कई आज भी अदालतों में चल रहे हैं। इशरत जहां, सोहराबुद्दीन, तुलसीराम प्रजापति,बाटला हाउस,भोपाल एनकाउंटर ,हैदराबाद एनकॉउंटर और विकास दुबे आदि केस बहुचर्चित रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मुठभेड़ों के संबंध में पुलिस के लिए कुछ दिशा निर्देश जारी किए हैं। हर मुठभेड़ के संबंध में पुलिस को इन दिशा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य है। इन दिशा निर्देशों की पालना क्या हमें और आपको अधिक सुरक्षित बना पाएगी यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।हालांकि फर्जी एनकाउंटर के मामले बहुत कम हैं। भले ही एक निर्दोष मारा जाए, सम्बंधित अधिकारी पर कार्रवाई तो होनी ही चाहिए। अगर ये बीमारी कम होती है, तो अच्छी ही बात है। यह भी कड़वी सच्चाई है कि गैलेंट्री अवॉर्ड और पदोन्नति पाने के लिए अतीत में फर्जी एनकाइंटर का सहारा लिया जाता रहा है। पुख्ता इंटेलीजेंस के साथ ही पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए, क्योंकि एनकाउंटर सीधे-सीधे जान का मसला होता है।पदोन्नति और अवॉर्ड हाथों हाथ नहीं मिलते हैं। कोई पुलिस अधिकारी मैडल के लिए एनकाउंटर नहीं करता है। पुलिसकर्मी अपनी डयूटी निभाता है। उसे यह भी पता नहीं होता कि एनकाउंटर का क्या परिणाम निकलेगा। सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश के बाद ऐसा नहीं है कि पुलिस अपराधियों का एनकाउंटर करने से बच रही है। पर इसमें होने वाली जनहानि का पुलिस को ध्यान रखना जरूरी है। सावधानी बरतना जरूरी है। अगर कोई निर्दोष मारा जाता है तो उसकी जिम्मेवार पुलिस ही है। असल में इन दिशा-निर्देश के बाद पुलिस ज्यादा सावधानी बरतेगी।वहीं दुसरी ओर आज ढाई लाख से अधिक ऐसे लोग हैं जिन पर मुकदमें चल रहे हैं और वे जेलों में हैं, जबकि कानून की नजर में वे तब तक निर्दोष हैं जब तक उन्हें दोषी करार नहीं दिया जाता। अनेक मामलों में वर्षों से अभी सुनवाई शुरू ही नहीं हुई। हर दस में सात ऐसे लोग हैं जो इस स्थिति में हैं। जेलों में कैदियों की भीड़ बढ़ती जा रही है। कुछ जेलों में तो उनकी क्षमता से 300 प्रतिशत अधिक कैदी पहुंच रहे हैं। कैदियों को पारियों में यानी बारी-बारी से सोना पड़ता है क्योंकि सोने के लिए जगह ही नहीं है। संभवत: लोकतांत्रिक विश्व का कोई भी देश इस ढंग से अपने नागरिकों को जेलों में नहीं ठूंसता जैसा कि भारत ठूंसता है। जिन्हें जेल होती है उनमें सबसे बड़ी संख्या गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों की है। यह कहना कि व्यवस्था समाज के इन वर्गों के प्रति क्रूर व्यवहार करती है, अतिशयोक्ति नहीं होगी। व्यवस्था सिर्फ इन्हीं लोगों को अपना निशाना बनाती है।ऐसा नहीं है कि यह ऐसे ही हो जाता है या दुर्घटनावश होता है। बल्कि राज्य अपनी जिद पर उतारू है कि जेलों में गरीबों की संख्या कम न की जाए। राज्य और आतंक के बल पर व्यवस्था कायम करने वाली उसकी पुलिस के लिये यह जरूरी है कि कानून द्वारा अपराधी ठहराये जाने से पहले किसी भी आरोपी को मनमानी ताकत के बल पर जेल में ठूंस दिया जाए। फौजदारी न्याय प्रणाली की दरअसल इस तथ्य में रुचि नहीं है कि सच्चाई क्या है इसका निर्णय तो अंतिम फैसले में निहित है। यह तो अपराधों की रोकथाम के उद्देश्य से असंख्य लोगों को हिरासत में रखने की मनमानी व्यवस्था है जिसमें अंतिम फैसले की तब तक कोई चिंता नहीं जब तक पुलिस द्वारा पकड़े गये आरोपी दोषमुक्त किये जाने से पहले वर्षों तक जेल में न सड़ते रहें। जो राज्य की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि उसमें आरोपियों की संख्या कम है, वे इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि पुलिस का मकसद पहले तो आरोप सिद्ध करना होता ही नहीं है। यह बताता है कि विधान सम्मत आपराधिक जांच की स्थिति इतनी ढुलमुल क्यों है और यह भी कि कानून पर कम और लाठी पर ज्यादा विश्वास क्यों है।लेकिन हम मानव अधिकारों की संस्कृति को बढ़ाने के लिए क्या कर रहे हैं जिससे मानव अधिकारों का उल्लंघन न हो? यह आशा की जाती है कि हम मामलों की संख्या न बढ़ाएं लेकिन ऐसा हो रहा है। और, हम इस समय, जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह यह है कि मानव अधिकार आयोगों ने अपना कर्तव्य निभाना बंद कर दिया है।हमारे कानून के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को अपनी अलग जांच मशीनरी स्थापित करने की इजाजत हासिल है। मानवाधिकार हनन से जुड़े मामलों की शिकायत मिलने की सूरत में आयोग इस मशीनरी का इस्तेमाल कर सकता है। यह व्यवस्था राज्य मानवाधिकार आयोगों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग दोनों के लिए है। लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच मशीनरी काफी भारी-भरकम है जिसमें अवकाश प्राप्त पुलिस महानिदेशक व अन्य भूतपूर्व आला पुलिस अफसरों की नियुक्ति की जाती है। ये अधिकारी संबंधित मामले की निष्ठावान जांच के आदेश तो दे सकते हैं, परंतु खुद जांच कार्य नहीं कर सकते। ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारियों को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए जो कि पूरी सक्रियता के साथ जांच कार्य में असल भूमिका निभा सकते हैं। मानवाधिकार हनन के तमाम गंभीर मामलों की ठोस जांच यदि करनी है तो इसके लिए बड़ी संख्या में इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारियों को भर्ती करना होगा। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये भर्तियां अलग से हों, न कि केंद्र अथवा राज्य पुलिस बलों से अधिकारियों का स्थानांतरण करके।आज राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सेमिनार और इसी प्रकार के अन्य मंचीय बहस-मुबाहिसों को आयोजित करने वाली संस्था बनकर रह गया है। बेशक इसके पास जांच कार्य और उस आधार पर सिफारिशें करने का अधिकार है, लेकिन इनका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है और ये दूर के ढोल जैसे साबित हुए हैं। आयोग को चाहिए कि वह मानवाधिकार हनन के तमाम मामलों को समीक्षा के लिए अपने अधीन ले और संजीदगी से इनकी पड़ताल करे। आयोग खुद को सिर्फ पुलिस या अर्द्धसैनिक बलों द्वारा अंजाम दिए जाने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों तक सीमित न रखे। पर अभी तक तो वह इस दिशा में आगे बढ़ता नजर नहीं आता क्योंकि यातनाओं का सिलसिला बेखौफ जारी है।*बाॅक्स में*एनकाउंटर पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश- खुफिया गतिविधियों की सूचना लिखित या इलेक्ट्रोनिक तरीके से आंशिक रूप में ही सही पर रिकॉर्ड अवश्य की जानी चाहिए।- यदि सूचना के आधार पर पुलिस एनकाउंटर के दौरान आग्नेय अस्त्रों का इस्तेमाल करती है और संदिग्ध की मौत हो जाती है तो आपराधिक जांच के लिए एफआईआर अवश्य दर्ज हो।- ऐसी मौतों की जांच एक स्वतंत्र सीआईडी टीम करे जो आठ पहलुओं पर जांच करे।- एनकाउंटर में हुई सभी मौतों की मजिस्टेरियल जांच जरूरी।- एनकाउंटर में हुई मौत के संबंध में तत्काल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य आयोग को सूचित करें।- पीडित घायल या अपराधी को मैडिकल की सुविधा मिले, मजिस्ट्रेट उसके बयान दर्ज करे।-एफआईआर तथा पुलिस रोजनामचे को बिना देरी किए कोर्ट में पेश करें।- ट्रायल उचित हो और शीघ्र शीघ्रता से हो।-अपराधी की मौत पर रिश्तेदारों को सूचित करें।- एनकाउंटरों में हुई मौत का द्विवार्षिक विवरण सही तिथि और फॉर्मेट में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य आयोग को भेजें।- अनुचित एनकाउंटर में दोषी पाए गए पुलिसकर्मी का निलंबन और कार्रवाई।- मृत के संबंधियों के लिए सीआरपीसी के अंतर्गत दी गई मुआवजा योजना अपनाई जाए।-पुलिस अधिकारी को जांच के लिए अपने हथियार सौंपने होंगे।- दोषी पुलिस अधिकारी के परिवार को सूचना दें और वकील व काउंसलर मुहैया कराएं।- एनकाउंटर में हुई मौत में शामिल पुलिस अधिकारियों को वीरता पुरस्कार नहीं दिए जाएं।- इन दिशा निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है तो पीडित सत्र न्यायाधीश से इसकी शिकायत कर सकता है जो इसका संज्ञान अवश्य लेंगे।फर्जी एनकाउंटर की बीमारी बरसों से चली आ रही है। औपनिवेशिक काल में ही ऎसी मुठभेड़ होती रही हैं। लेकिन इनको रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश उचित दिखाई पड़ते हैं। यह तर्क देना कि एनकाउंटर करने पर पदोन्नति और अवॉर्ड जांच पूरी नहीं होने तक नहीं मिलेंगे तो पुलिसकर्मी एनकाउंटर नहीं करेंगे, बिलकुल गलत है।

(लेखक दिल्ली स्थित मानवाधिकार संगठन एनसीएचआरओ में एडवोकेट)_

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